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________________ 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम' इति ? किं चातः ? यद्याद्यः पक्षः, ततो यथोक्तफलशून्यत्वात् फलान्तरभावे च तदन्यस्तुत्यविशेषादलमिहैव यत्नेन । न च यक्षस्तुतिरप्यफलैवेति प्रतीतमेवैतत् । अथ चरमो विकल्पः, ततः सम्यक्त्वाणुव्रतमहाव्रतादिचारित्रपालना ( प्र० ... पालनादि ) वैयर्थ्यम्, तत एव मुक्तिसिद्धेः । न च फलान्तरसाधकमिष्यते सम्यक्त्वादि, मोक्षफलत्वेनेष्टत्वात्, 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ' इतिवचनादिति ( तत्त्वार्थ० १।१ ) " (पं० - ) ' स्तुत्यर्थवाद' इति, स्तुतये = स्तुत्यर्थं, अर्थवादः = प्रशंसा, स्तुत्यर्थवादः । विप्लावनाद्यर्थमपि अर्थवादः स्यात्, तद्व्यवच्छेदार्थं स्तुतिग्रहणमिति । ( ल० स्तुति: त्रिधिवाद: ) अत्रोच्यते " विधिवाद एवायं न च सम्यक्त्वादिवैयर्थ्यं तत्त्वतस्तद्भाव एवास्य भावात् । दीनारादिभ्यो भूतिन्याय एषः, तदवन्ध्यहेतुत्वेन तथा तद्भावोपपत्तेः । अवन्ध्यहेतुश्चाधिकृतफलसिद्धौ भावनमस्कार इति । = ( पं० ) 'तत्त्वत' इत्यादि । तत्त्वतो निश्चयवृत्त्या, 'तद्भाव एव' सम्यग्दर्शनादिभाव एव, 'अस्य'=नमस्कारस्य, 'भावात्' । द्रव्यतः पुनरन्यथाप्ययं स्यादिति तत्त्वग्रहणम् । इदमेव सदृष्टान्तमाह 'दीनारादिभ्यो' : दीनारप्रभृतिप्रशस्तवस्तुभ्यो, 'भूतिन्यायो' = विभूतिदृष्टान्तः, तत्सदृशत्वाद् भूतिन्यायः, 'एष:' = सम्यक्त्वादिभ्यो नमस्कारः । एतदपि कुत इत्याह 'तदवन्ध्यहेतुत्वेन', तस्य =नमस्कारस्य साध्यस्य, अवन्ध्यहेतुत्वेन नियतफलकारिहेतुभावेन सम्यक्त्वादीनां, ' तथा ' = भावनमस्कार ( प्र० नमस्कारभाव) रूपतया, ‘तद्भावोपपत्तेः’=सम्यक्त्वादीनां परिणत्युपपत्तेः; भूतिपक्षे तु तस्याः = भूतेः, अवन्ध्यहेतुत्वेन दीनारादीनां, तथा = भूतितया, तेषां=दीनारादीनां, परिणते:=घटनादिति योज्यमिति । भवतु नामैवं तथापि कथं प्रकृतसंसारोत्तारसिद्धिरित्याशङ्क्याह ‘अवन्ध्यहेतुश्च’=अस्खलितकारणं च, 'अधिकृतफलसिद्धौ' मोक्षलक्षणायां, 'भावनमस्कारो' भगवत्प्रतिपत्तिरूपः, इति कथं न मोक्षफलं सम्यग्दर्शनादि ? परम्परया मोक्षस्य तत्फलत्वादिति । - = - इस प्रकार स्त्री जब अजीव से लेकर अकल्याणभाजन तक नहीं है, तब वह केवलज्ञान और मोक्ष के उपयोगी उत्तम धर्म की साधक क्यों न हो ? अर्थात् स्त्री भी उत्तम धर्म साधक है ही । Jain Education International = इससे विद्वज्जन कहते हैं कि वैसे वैसे काल की अपेक्षा अर्थात् भरत - ऐरवत क्षेत्र में अवसर्पिणी काल के तृतीय आरे के अन्त एवं चतुर्थ आरे में और उत्सर्पिणी काल के तीसरे आरे में एवं चौथे के प्रारम्भ में, तथा महाविदेह क्षेत्रे सर्व काल में, पूर्वोक्त इतनी गुणसंपत्ति से युक्त ही स्त्री उत्तमधर्म की साधक हो सकती है। यह उत्तमधर्म केवलज्ञान को प्रगट करना है, और केवलज्ञान होने पर अवश्य मोक्ष प्राप्ति होती है। इतना प्रसङ्गवश कहा गया। जब महावीर प्रभु के प्रति किया गया एक भी नमस्कार नर-नारी को संसार समुद्र से पार कर देता है, तब यह एक कर्तव्य बन जाता है कि यह नमस्कार करना चाहिए । स्तुति अर्थवाद है या विधिवाद ? : प्र० - यहां 'महावीर प्रभु के प्रति किया गया एक भी नमस्कार संसारोद्धारक है;' ऐसी जो महावीर प्रभु की स्तुति की गई यह क्या (१) स्तुति - अर्थवाद है या (२) विधिवाद ? (१) • अर्थवाद दो प्रकार का होता है (१) प्रशंसावाक्य, और निन्दावाक्य । इनमें दूसरा अशुभ प्रसङ्ग आदि सूचित करने के लिए भी निन्दात्मक अर्थवाद वाक्य का प्रयोग किया जाता है; लेकिन यहां शुभसूचक प्रशंसात्मक अर्थवाद का प्र है इसलिए पूछा ३५६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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