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________________ (ल० - सुयस्स भगवओ...' व्याख्या - ) एवं प्रणिधानं कृत्वैतत्पूर्विका क्रिया फलायेति श्रुतस्यैव कायोत्सर्गसंपादनार्थं पठति पठन्ति वा 'सुयस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गमित्यादि यावद् वोसिरामि ।व्याख्या पूर्ववत् ; नवरं श्रुतस्ये 'ति= प्रवचनस्य सामायिकादिचतुर्दशपूर्वपर्यन्तस्य, भगवतः' = समग्रैश्वर्यादियुक्तस्य । ( श्रुतं सिद्धं त्रिधा - ) सिद्धत्वेन समग्रैश्वर्यादियोगः । न ह्यतो विधिप्रवृत्तः फलेन वञ्च्यते; व्याप्ताश्च सर्वे (प्र० ..र्व) प्रवादा एतेन; विधिप्रतिषेधा-ऽनुष्ठान-पदार्थाविरोधेन च वर्त्तते । ___(पं० -) सिद्धत्वेने 'ति, सिद्धत्वेन फलाव्यभिचार-प्रतिष्ठितत्व-त्रिकोटिपरिशुद्धिभेदेन । इदमेव 'न ह्यतो विधिप्रवृत्त' इत्यादिना वाक्यत्रयेण यथाक्रमं भावयति; सुगमं चैतत् ; नवरं 'विधिप्रतिषेधानुष्ठानपदा - र्थाविरोधेन च' इति, विधिप्रतिषेधयोः, कषरूपयोः, अनुष्ठानस्य छेदरूपस्य, पदार्थस्य च तापविषयस्य, अविरोधेन = पूर्वापराबाधया, वर्तते, 'च'कार उक्तसमुच्चयार्थः । . अनन्तशः द्रव्यश्रुतप्राप्तिमूलक ग्रैवेयकस्वर्ग-प्राप्ति : महामिथ्यादृष्टि को भाव श्रुतयोग्यता की प्राप्ति का भी होना असंभव है, तब फिर उस योग्यता के फलनिष्पादन न होने का तो पूछना ही क्या ? कारण यह है कि अन्य मिथ्यादृष्टिओं की तो क्या बात किन्तु महामिथ्यादृष्टिओं को उस द्रव्यश्रुत की प्राप्ति का कुछ भी फल प्राप्त नहीं हुआ है; क्योंकि द्रव्यश्रुत के फल का प्रस्तुत एक अंश, श्रुतार्थका यथावत् बोध भी उन्हें प्राप्त नहीं है; समस्त फल की बात तो दूर रही। अगर श्रुतार्थ का यथावत् बोध यानी भावश्रुत उन सभी मिथ्यादृष्टिओं को प्राप्त हुआ होता, तब तो अल्प काल में ही सभी की मुक्ति हो गई होती । लेकिन आज भी अगण्य जीव संसार में ही बंधे हुए दिखाई पड़ते हैं, इससे यह मानना अनिवार्य है कि उन्हें पुद्गलपरावर्त काल के पहले भाव श्रुत की प्राप्ति ही नहीं हुई। प्र० - अगर भावश्रुत प्राप्त नहीं था, तब द्रव्यश्रुत भी अनेकशः प्राप्त हुआ था यह भी कैसे कह सकते हैं ? उ० - अनेकशः द्रव्यश्रुत की प्राप्त हुई थी, इसमें आगम का उपदेश प्रमाण है। आगम में सूचित किया है कि पृथ्वीकायादि व्यवहारराशि में रहे हुए प्रायः सर्व जीवों को ग्रैवेयक नाम के स्वर्ग में अनन्त वार जन्म प्राप्त हुआ है। ग्रैवेयक यह वैमानिक १२ देवलोक के ऊपर का स्वर्ग है। अब देखिए कि ग्रैवेयक में उत्पत्ति जैन चारित्र के बिना हो ही नहीं सकती; तब यह फलित होता है कि अनन्तशः ग्रैवेयकगमन के पूर्व अनन्तश: जैनचारित्र एवं श्रुत प्राप्त हुआ ही था । वह भी, मोक्ष न होने के कारण मोक्षदायी भावचारित्र एवं भावश्रुत स्वरूप नहीं था, अर्थात् द्रव्यचारित्र और द्रव्यश्रुत ही अनन्तशः प्राप्त हुआ था, - यह सिद्ध होता है। बिना विवेक के श्रुत का कोई उपयोग नहीं, महामिथ्यादृष्टि के निष्फल द्रव्यश्रुत की अनन्तशः प्राप्ति, मिथ्यादृष्टि को भावश्रुतयोग्य द्रव्यश्रुत की प्राप्ति, श्रुतवृद्धि की प्रार्थना का महत्त्व, यह सब आगमज्ञ पुरुषों से आगम वचन के अनुसार गम्भीर रूप से विचारणीय है। इस प्रकार अन्य सूत्रों के वाक्यार्थ-रहस्यार्थ समझ लेने योग्य है। यहां जो विचारणा बतलाई गई है वह तो मात्र दिग्दर्शन है। 'सुयस्स भगवओ' की व्याख्या : 'धम्मो वड्ढउ.... धम्मुत्तरं वड्ढउ' - इस वचन से श्रुतवृद्धि का प्रणिधान करने के बाद अब श्रुत के कार्योत्सर्ग के संपादनार्थ, प ३३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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