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________________ (ल० - अनन्तशो द्रव्यश्रुतमूलकप्रैवेयकप्राप्ति:-) प्राप्तं चैतदभव्यैरप्यसकृत्, वचनप्रामाण्यात् । न च ततः किश्चित्, प्रस्तुतफललेशस्याप्यसिद्धेः । परिभावनीयमेतदागमज्ञैर्वचनानुसारेणेति । एवम - न्येषामपि सूत्राणामर्थो वेदितव्य इति दिग्मात्रप्रदर्शनमेतत् । (पं० -) महामिथ्यादृष्टेः प्राप्तिरप्यस्यासंभविनी, कुतस्तस्य फलचिन्ता ? इत्याह - 'प्राप्तं' = लब्धं, 'च' कारः उक्त (प्र० .... अनुक्त) समुच्चये, 'एतत्' = श्रुतम्, 'अभव्यैरपि' = एकान्तमहामिथ्यादृष्टिभिः किं पुनरन्यमिथ्यादृष्टिभिः, 'असकृद्' = अनेकशः, कुत इत्याह 'वचनप्रामाण्यात्' = सर्वजीवानामनन्तशो ग्रैवेयकोपपातप्रज्ञापनाप्रामाण्यात् । एवं तर्हि तत्फलमपि तेषु भविष्यतीत्याह, 'न च' = नैव, 'ततः' = श्रुतप्राप्तेः, 'किञ्चित्' फलमिति गम्यते । कुत इत्याह प्रस्तुतफललेशस्यापि' = प्रकृतयथावबोधरूपफलांशस्यापि, आस्तां सर्वस्य, असिद्धेः' = अप्राप्तेः । तत्सिद्धावल्पकालेनैव सर्वमुक्तिप्राप्तिप्रसङ्गात् । कि चिन्तामणि की पहिचान एवं उपासना न होने से ऐसी महान प्राप्ति के अनुरूप फल उसे नहीं मिलता है, उस प्रकार महामिथ्यादृष्टि को श्रुताध्ययन प्राप्त होते हुए भी श्रुत का फल प्राप्त नहीं होता है। मिथ्यादृष्टि को द्रव्यश्रुतप्राप्ति स्थानास्थानराग : अचरमावर्ती जीव महामिथ्यादृष्टि की ऐसी स्थिति है; जब कि चरम (अन्तिम) पुद्गलपरावर्त - कालवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव जो धर्म बीजाधान के लिए योग्य है, उसे भावश्रुतयोग्य द्रव्यश्रुत की प्राप्ति होती है। भावश्रुत अर्थात् श्रुत का यथार्थ बोध तो सम्यग्दृष्टि जीव को ही भावतः प्राप्त होता है उसको लाने वाली द्रव्यतः श्रुतप्राप्ति धर्मबीजाधान योग्य मिथ्यादृष्टि को होती है। प्र० - भावश्रुतयोग्य द्रव्यश्रुतप्राप्ति कैसी होती है ? उ० - योग्य द्रव्यश्रुतप्राप्ति आदरादि लक्षण वाली होती है। 'आदरः करणे प्रीतिरविघ्नः संपदागमः।' - अर्थात् आदर, करने में प्रीति, निर्विघ्नता, संपतिओं का आगमन.... इत्यादि लक्षणों से वह प्रधान द्रव्यश्रुतप्राप्ति हुई ऐसा अवगत होता है। ऐसे लक्षण होने पर भी वह भाव श्रुतप्राप्ति नहीं किन्तु द्रव्य श्रुतप्राप्ति इसलिए कही जाती है कि वहां सम्यक् श्रुत के अर्थ का उपयोग यानी इसमें दत्तचित्तता नहीं है। शास्त्र कहता है 'अणुवओगो दव्वम्' - अनुपयोग, चित्त का अलक्ष, यह 'द्रव्य' है; 'उपयोग' यह भाव है। महामिथ्यादृष्टि को भी सम्यक्श्रुतार्थउपयोग से रहित अप्रधान द्रव्यश्रुत-प्राप्ति तो हो सकती है, फिर भी इसकी अपेक्षा धर्मबीजाधान-योग्य मिथ्यादृष्टि की प्राप्ति में इतनी विशेषता है कि उसे केवल अस्थान में आग्रह है ऐसा नहीं, सम्यग्दर्शन-ज्ञान - चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग के केवल विरोधी भावों में ही आग्रह है ऐसा नहीं, किन्तु स्थान रूप मोक्षमार्ग के प्रति भी आग्रह है; तात्पर्य, उसे स्थान-अस्थान दोनों का राग है; क्योंकि उसमें भव्यत्व यानी भावश्रुत की योग्यता है। प्र० - भावश्रुत की योग्यता है इसीलिए स्थान-अस्थान दोनों का आग्रह है, - ऐसा नियम क्यों ? उ० - यह नियम इसलिए है कि केवल अस्थान-आग्रह यानी मोक्षमार्ग-विरोधी भावों का ही आग्रह होने पर भाव श्रुतयोग्यता होती ही नहीं है। भावश्रुतयोग्यता वस्तु ही ऐसी है कि वह केवल अस्थान - आग्रह नहीं किन्तु स्थान, अस्थान दोनों के प्रति आग्रह कराती है। मोक्षमार्गविरोधी तत्त्व के एकान्त आग्रह में से खिसक कर जीव जब मोक्षमार्ग के अनुकूल तत्त्व के भी राग में आता है अर्थात् उन तत्त्वों के प्रति आकर्षित होता है तभी भावश्रुत की योग्यता होती है। चरमावर्ती मिथ्यादृष्टि जीव में यह होने से स्थान, अस्थान दोनों का आग्रहसिद्ध है, लेकिन महामिथ्यादृष्टि में केवल अस्थान का आग्रह होता है - यह फर्क है। II ३३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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