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________________ (ल० - इतरयोगशास्त्रप्रमाणानिः - ) परमगर्भ एष योगशास्त्राणाम् । अभिहितमिदं तैस्तैचारुशाब्दैः, - 'मोक्षाध्वदुर्गग्रहणमिति कैश्चित् ; 'तमोगन्थिभेदानन्द' इति चान्यैः, 'गुहन्धकारालोककल्पम परैः; 'भवोदधिद्वीपस्थानं' चान्यैरिति । __ (पं० -) पुनः कीदृगित्याह 'परमगर्भः = परमरहस्यम्, 'एषः' विवेकः, 'योगशास्त्राणां' षष्टितन्त्रादीनाम् । कुतः ? यतः 'अभिहितम्', 'इदं' विवेकवस्तु; 'तैस्तैः' = वक्ष्यमाणैः, 'चारुशब्दैः' = सत्योदारार्थध्वनिभिः, 'मोक्षाध्वे'त्यादि । प्रतीतार्थं वचनचतुष्कमपि, नवरं 'मोक्षाध्वदुर्गग्रहण' मिति - यथा हि कस्यचित् क्वचिन्मागर्गे तस्करायुपद्रवे दुर्गग्रहणमेव परित्राणं, तथा मोक्षाध्वनि रागादिस्तेनोपद्रवे विवेकग्रहणमिति । यह विवेक यानी सम्यग् अर्थविचार अति गम्भीर एवं उदार एक आत्मपरिणाम है; - अतिगंभीर इसलिए कि वह श्रुतावरणकर्म के बहुत क्षयोपशम द्वारा लभ्य होने से गहरा है, अति उदार इसलिए कि वह सफल सुखलाभ का संपादक है। केवल सूत्रमात्र से नहीं, - किन्तु इसके सम्यग् अर्थविचार से ही संवेगसुधा का अनुभव होता है। संवेग यह धर्म एवं देवाधिदेव और गुरु के प्रति अनुराग स्वरूप है, और वह मृत्यु से परे अमर पद देने की सामर्थ्य वाला होने से अमृत स्वरूप है। कहा गया है कि, - "हिंसा के प्रतिपादन से रहित ऐसा धर्म, राग-द्वेष-मोह आदि से मुक्त ऐसे देव, एवं समस्त बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह के प्रबन्ध से रहित ऐसे निर्ग्रन्थ मुनि के प्रति जो निश्चल अनुराग है वह संवेग कहा जाता है। ऐसा संवेग सम्यग् अर्थज्ञान का फल है। सम्यग् अर्थज्ञान से संवेग होता है। प्र०-फलदायी तो क्रिया होती है, ज्ञान नहीं । कहा गया है कि-'क्रियैव फलदा पुसां, न ज्ञानं फलदं मतम्' क्योंकि स्त्री, भोजन आदि के भोगों को सिर्फ जानता हुआ पुरुष इसके ज्ञान मात्र से सुख नहीं पाता है; आनन्द तो उसको भोगने की क्रिया करे तभी आता है: तब फिर यहां भी विवेक पूर्वक श्रुतग्रहण मात्र से ही क्या लाभ? उ० - ज्ञान के द्वारा ही क्रिया सम्यग् रूप से हो सकती है, और फल देती है। यह सत्य व्यतिरेक रूप से अर्थात् निषेधमुख से एक दूसरे पदार्थ के दृष्टान्त द्वारा देखिए : - जिसे चिन्तामणि के ज्वरादिउपशमन - स्वभाव का ज्ञान नहीं है, वह पुरुष उसकी उचित पूजा उपासनादि क्रिया में प्रवृत्त नहीं होता है। चिन्तामणि के गुण का ज्ञान होने पर ही उसमें पूजादि प्रयत्न होता है । इसी प्रकार श्रुत यानी सूत्र-शास्त्र के विषय में भी ज्ञान पूर्वक ही सम्यक् क्रिया लब्धावकाश एवं सफल होती है। चिन्तामणि भी स्वरूपतः फलदायी नहीं : अगर कहें 'चिन्तामणि चिन्तामणि है, इसीलिए उससे मनोवांछित की सिद्धि होती है, तो फिर वहां उक्त गुणपरिचय, पूजादियन करने की क्या आवश्यकता है?' इसका उत्तर यह है कि चिन्तामणि के दृष्टान्त में भी उसका गुणपरिचय किये बिना और पूजादिप्रयत्न न होने पर उससे भी इच्छित परम ऐश्वर्य आदि की सिद्धि नहीं होती है, तब फिर श्रुत की तो बात ही क्या ? ज्ञानपूर्वक ही सभी प्रयत्न वाञ्छित फल का साधक हो सकता है, - यह तत्व बुद्धिमानों को प्रत्यक्ष है, क्यों कि वह बुद्धि स्वरूप चक्षु का विषय है, बुद्धिचक्षु से उसका साक्षात्कार होता है। उल्टे रूप से देखें तो बैल जैसे पामर लोगों को यह सदैव ही अप्रत्यक्ष है। उनकी वैसी बुद्धिशक्ति न होने से यह तत्त्व उनसे समझा जाना अशक्य है। विवेक में अन्य योगशास्त्रों के प्रमाण : ३३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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