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________________ (ल० - ) न चान्यथाऽतोऽपि समीहितसिद्धिः । प्रकटमिदं प्रेक्षापूर्वकारिणाम्, एकान्ताविषयो गोयोनिवर्गस्य । (पं० -) ननु चिन्तामणिश्चिन्तामणित्वादेव समीहितफलः स्यात्, किं तत्रोक्तयत्नेन ? इत्याह - 'नच' = नैव, अन्यथा' = अज्ञातगुणत्वेन यत्नाभावे, 'अतोऽपि' = चिन्तामणेरपि, आस्तां श्रुतज्ञानात् 'समीहितसिद्धिः' = प्रार्थितपरमैश्वर्यादिसिद्धिः । इदमेव भावयन्नाह - 'प्रकटमिदं' = प्रत्यक्षमेतत्, 'प्रेक्षापूर्वकारिणाम्' = बुद्धिमतां प्रेक्षाचक्षुषो विषयत्वाद् यदुत, ज्ञानपूर्वः सो यत्नः समीहितसिद्धिफलः । व्यतिरेकमाह एकान्ताविषयः' = सदाप्यसंवेद्यत्वात्, ‘गोयोनिवर्गस्य' = बलीवर्दसमपृथग्जनस्य । श्रुतधर्म-वृद्धि का हेतु प्रार्थना : इस प्रकार श्रुतधर्म-वृद्धि से होने वाली फलसिद्धि बतलाई गई; अब उसी श्रुतधर्म-वृद्धि की हेतुसिद्धि कही जाती है, अर्थात् यह प्रदर्शित किया जाता है कि उसका क्या उपाय है? ग्रन्थकार कहते हैं कि जैसे मोक्ष श्रुतधर्म की वृद्धिं से होता है, वैसे श्रुतधर्म की वृद्धि उसकी प्रार्थना स्वरूप शुभ भाव के स्वीकार से होती है। प्र० - प्रार्थना से इष्ट की वृद्धि कैसे? इसमें शालिवृद्धि का दृष्टान्त क्या है ? उ० - प्रार्थना में चित्त में प्रणिधान होता है, जैसे कि प्रस्तुत श्रुतस्तव पढने में श्रुतधर्मवृद्धि की आशंसा यानी प्रणिधान होता है; और यह एक अत्यन्त शुभ अध्यवसाय है। वह भी कैसा, कि जिस प्रकार छिलकायुक्त चावल याने शालि के बीज बोया जाने पर वह शालि को पैदा करता है, और बार बार बीजारोपण से फल की वृद्धि होती है; इसी प्रकार बार बार श्रुतस्तव पढ़ने से प्रादुर्भूत प्रार्थना का शुद्ध भाव इष्ट श्रुतधर्म की वृद्धि करता हैं। श्रुतधर्म वृद्धि की प्रार्थना के लिए दृष्टान्त रूप में देखा जाता है कि पुनः पुनः शालिबीज के आरोपण से, अर्थात् एक बार बीजारोपण किया, इससे शालि की फसल हुई, उसको पुनः बीजरूप से बोया गया, तो उसकी जो फसल हुई, उसको फिर से बोया गया, इस प्रकार बार बार करने से शालि की अच्छी वृद्धि होती है। इस तरह शालि वृद्धि की भांति यहां श्रुतस्तव में भी बार बार श्रुतधर्मवृद्धि की आशंसा प्रार्थना करते रहने से इष्ट श्रुतवृद्धि होती है। प्रार्थना बीज के साथ जल क्या ? : यहां यह ध्यान रहे कि जिस प्रकार शालिबीजारोपण के दृष्टान्त में सहकारी कारण जल स्वीकृत ही है, इस प्रकार श्रुतवृद्धि की प्रार्थना से श्रुतवृद्धि होने के लिए जल के स्थानमें विवेक पूर्वक श्रुतस्वीकार ग्राह्य ही है। विवेक यह श्रुत के सम्यग् अवधारण या चिंतन स्वरूप है। इससे पता चलता है कि सम्यग् अर्थविचार पूर्वक श्रुतग्रहण या श्रुत के सम्यग् अर्थविचार का स्वीकार, यह सहकारी कारण हुआ, और श्रुतवृद्धि की प्रार्थना बीज हुई । इससे श्रुतवृद्धि होती है। जल के बिना शालिवृद्धि नहीं होती है, इसका यह अर्थ नहीं कि शालिबीजारोपण कम महत्त्व का है। इसी प्रकार विवेक पूर्वक श्रुतग्रहण के बिना श्रुतवृद्धि नहीं होती है, इसका अर्थ यह नहीं कि श्रुतवृद्धि की प्रार्थना का कम महत्त्व है; प्रार्थना का तो विशिष्ट महत्त्व है; श्रुतस्वरूप शालि की वृद्धि में श्रुतवृद्धि प्रार्थना बीजारोपणतुल्य है, और विवेक पूर्वक श्रुतग्रहण यह जल के समान है। विवेक का महत्त्व, चिन्तामणि का दृष्टान्त : ३३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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