SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (ल० - चतुर्थगाथाव्याख्या - ) यतश्चैवमत 'आह - 'सिद्धे भो ! पय (ओ)' इत्यादि - ('सिद्धे भो ! पयओ नमो जिणमए नन्दी सया संजमे, देवनागसुवण्णकिन्नरगणस्सब्भूअभावञ्चिए । लोगो जत्थ पइट्ठिओजगमिणं तेलो(प्र०-लु)कमच्चासुरं, धम्मोवढउसासओ विजयओधम्मुत्तरंवढ़।४) अस्य व्याख्या, - सिद्धे = प्रतिष्ठिते, प्रख्याते । तत्र सिद्धः फलाव्यभिचारेण, प्रतिष्ठितः सकलनयव्याप्तेः, प्रख्यातस्त्रिकोटीपरिशुद्धत्वेन । भो इत्येतदतिशयिनामामन्त्रणं 'पश्यन्तु भवन्तः', प्रयतोऽहं, यथाशक्त्येतावन्तं कालं, प्रकर्षेण यतः । इत्थं परसाक्षिकं प्रयतो भूत्वा पुनर्नमस्करोति । नमो जिनमते, सुपां सुपो भवन्तीति चतुर्थ्यर्थे सप्तमी, नमो जिनमताय । तथा चास्मिन् सति जिनमते नन्दिः समृद्धिः, सदा = सर्वकालं, क्व ? संयमे = चारित्रे । तथा चोक्तं पढमं नाणं तओ दये 'त्यादि । किंभूते संयमे ? देवनागसुवर्ण (प्र०...सुपर्ण) किन्नरगणैः सद्भूतभावेनाचिते । तथा च संयमवन्तोऽय॑न्त एव देवादिभिः । किंभूते जिनमते ? लोकनं लोकः = ज्ञानमेव, स यत्र प्रतिष्ठितः, तथा जगदिदं ज्ञेयतया । केचिन्मनुष्यलोकमेव जगन्मन्यन्ते । इत्यत आह त्रैलोक्यं मनुष्यासुरम् आधाराधेयरू पमित्यर्थः । अयमित्थंभूतः श्रुतधर्मो वर्धतां = वृद्धिमुपयातु, शाश्वतम् इति क्रियाविशेषणमेतत् शाश्वतं वर्द्धतामित्यप्रच्युत्येति भावना विजयतो (प्र०... विजयताम् ) अनर्थप्रवृत्तपरप्रवादिविजयेनेति हृदयम् । तथा धर्मोत्तरं = चारित्रधर्मोत्तरं वर्द्धताम् । ___ अर्थ :- हे (अतिशयज्ञानी ! देखिए) मैं प्रतिष्ठित जिनमत में अत्यन्त प्रयत्न वाला हो उसको नमस्कार करता हूँ। (जिनमत होने से) देव-नागदेवता-सुवर्ण (सुपर्ण)कुमार-किन्नर के समूह से सद्भाव से पूजित संयम में सदा समृद्धि होती है। जिनमत में ज्ञान प्रतिष्ठित है और यह जगत त्रैलोक्य मनुष्य असुर आदि (ज्ञेयरूप से) रहे हैं, ऐसा (जिनमत यानी) श्रुतधर्म (अन्य वादी पर विजय (करने) द्वारा सतत वृद्धि प्राप्त करे, चारित्रधर्म के बाद (भी) बढे। जिनमत सिद्ध प्रतिष्ठित एवं प्रख्यात कैसे ? : व्याख्या :- 'सिद्ध' = प्रतिष्ठित, प्रख्यात जिनोक्त श्रुतधर्म में । यहां जो कहा कि जिनोक्त श्रुतधर्म याने जिनमत 'सिद्ध' है इसका कारण यह है कि उसका फल अवश्यंभावी है, जिनमत कथित या जिनमत साध्य फल अवश्य होता है । एवं जिनमत 'प्रतिष्ठित' होने का कारण यह, कि वह समस्त नय अर्थात् द्रव्यार्थिकनय - पर्यायार्थिकनय, ज्ञाननय-क्रियानय-शब्दनय-अर्थनय, निश्चयनय-व्यवहारनय, इत्यादि सकल नयों से व्याप्त हैं, इसलिए उसको अप्रतिष्ठित, चलित, स्खलित, भ्रष्ट, प्रमाणबाधित होने का कोई संभव नहीं है। एवं जिनमत 'प्रख्यात' होने का कारण यह, कि वह त्रिकोटी-परिशुद्ध है इसलिए तीनों लोक में विख्यात है। 'भो' शब्द आमन्त्रणवाची-संबोधनवाची है, यहां अतिशयज्ञानी को संबोधित किया गया,-'हे अतिशय ज्ञानी भगवंत ! मैं सिद्ध जिनमत में प्रयत हूँ'; 'प्रयत' = यथाशक्ति इतने काल तक अत्यन्त प्रयत्नशील । इस प्रकार अन्यों की साक्षी में प्रयत हो साधक पुनः जिनमत को नमस्कार करता है, - 'नमो जिणमए' = मैं जिनमत को प्रणाम करता हूँ। यहां प्राकृत भाषा की 'सुपां सुपो भवन्ति' - एक विभक्ति के स्थान में दूसरी विभक्ति होती है' इस शैली से 'जिणमयस्स' के स्थान में 'जिणमए' ऐसा सप्तमी विभक्ति वाला पद दिया गया है, लेकिन अर्थ पष्ठी का है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy