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________________ (ल० - ) आह, "सुरगणनरेन्द्रमहितस्ये 'त्युक्तं, पुनर्देवदानवनरेन्द्रगणार्चितस्येति किमर्थम् ?" उच्यते, - प्रस्तुतभावान्वयफलतनिगमनत्वाददोषः, तस्यैवंगुणस्य धर्मस्य सारं सामर्थ्यमुपलभ्य कः सकर्णः प्रमादी भवेच्चारित्रधर्म इति । (पं० -) 'प्रस्तुतभावान्वयफलतन्निगमनत्वादि' ति, प्रस्तुतभावस्य सुरगणनरेन्द्रमहितः श्रुतधर्मो भगवानित्येवंलक्षणस्य, अन्वयः = अनुवृत्तिः, स एव फलं = साध्यं यस्य तत्तथा, तस्य = प्राग्वचनस्य, निगमनं = समर्थनं पश्चात् कर्मधारयसमासे भावप्रत्यये च प्रस्तुतभावान्वयफलतन्निगमनत्वं देवदानवनरेन्द्रगणार्चितस्येति यत् तस्मादिति। विशेष्य 'धम्मस्स' शब्द के अनुसार षष्ठी विभक्ति लगने से 'जाइ........ पणासणस्स' पद बना । श्रुतधर्म का यह विशेषण इसलिए दिया कि श्रुत से फरमाए हुए का पालन करने से जन्म-जरा-मृत्यु एवं शोक नष्ट हो जाते हैं। इससे श्रुत की अनर्थ-घातकता सूचित हो जाती है। 'कल्लाण....' - 'कल्ल' = कल्य, अर्थात् आरोग्य, उसको जो बुलाता है, वह है कल्लाण = कल्याण । 'पुक्खलविसालसुह' = संपूर्ण, वह भी अल्प नहीं किन्तु विशाल विस्तृत सुख । उसको जो चारों ओर से वहन करता है वह कल्लाणपुक्खलविसालसुहावह हुआ। ऐसे श्रुतधर्म का। श्रुतधर्म से कथित मार्ग का पालन करने से उक्त संपूर्ण विस्तृत मोक्षसुख प्राप्त होता ही है। इससे श्रुतधर्म में विशिष्ट इष्ट की साधकता है यह सूचित किया गया। 'को' = कौन जीव, ऐसे व 'देवदाणवनरिंदगणच्चिअस्स' = देव, दानव, एवं राजाओं के समूह से पूजित, 'धम्मस्स' = श्रुतधर्म के, 'सारं' = सामर्थ्य को 'उवलब्भ' = देख कर याने जान कर करे पमायं' = प्रमाद का सेवन करे? तात्पर्य, समझदार पुरुष को श्रुतोक्त चारित्र धर्म में प्रमाद करना उचित नहीं । प्र० - दूसरी गाथा में श्रुत का 'सुरगणनरिंदमहियस्स' ऐसा विशेषण तो दिया गया है, अब यहां उसी अर्थ का द्योतक 'देवदाणवनरिंदगणच्चिअस्स' ऐसा विशेषण पुनः क्यों दिया जाता है ? उ० - यह इसलिए देते हैं कि सूचित करना है कि 'सुरगणनरेन्द्र से भगवान श्रुतधर्म पूजित है यह जो प्रस्तुत भाव, उसकी अनुवृत्ति याने पुनरावृत्ति स्वरूप साध्य वाला एवं पूर्वोक्त वचन का निगमन अर्थात् समर्थन वाला 'देवदाणवनरिंदगणच्चिय' यह विशेषण है। इस विशेषण से श्रुतधर्म में उसी देवादि की पूजितता का पुनरावर्तन सूचित होता है, साथ ही पूर्वोक्त 'सुरगण ... इत्यादि वचन का समर्थन किया जाता है। तात्पर्य श्रुतधर्म देवादि से बार बार पूजित है इसका सूचन, ओर अनर्थ के नाशक एवं अर्थ (इष्ट) के साधक होने की वजह से श्रुतधर्म ठीक ही देवादि-पूजित है ऐसा समर्थन किया जाता है। इसलिये 'देवदाणव....' विशेषण लगाने में कोई दोष नहीं है। ऐसे गुणसंपन्न श्रुतधर्म की सामर्थ्य जान कर कौन बुद्धिमान श्रुत के सदुपयोग यानि श्रुतकथित चारित्र धर्म में प्रमादी होगा? चतुर्थ गाथा की व्याख्या : अब जिनमत को वन्दना कर श्रुतधर्म की प्रार्थना की जाती है, -- ('सिद्धे भो ! पयओ नमो जिणमए नन्दी सया संजमे, देवनागसुवण्णकिन्नरगणस्सब्भूअभावच्चिए । लोगो जत्थ पइट्ठिओजगमिणं तेलो(प्र०-लु)क्कमच्चासुरं, धम्मोवड्ढउसासओ विजयओधम्मुत्तरंवढउ।४) ३२८ AR Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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