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________________ (ल० - वचनं विना कथमर्थप्राप्तिः ?-) भवति च विशिष्टक्षयोपशमादितो माग्र्गानुसारिबुद्धेर्वचनमन्तरेणापि तदर्थप्रतिपत्तिः, क्वचित् तथादर्शनात्, संवादसिद्धेः । एवं च व्यक्त्यपेक्षया नाऽनादिशुद्धवादापत्तिः सर्वस्य तथा तत्पूर्वकत्वात् ; प्रवाहतस्त्विष्यत एव; इति न ममापि तत्त्वतोऽपौरुषेयमेव वचनमिति प्रपञ्चितमेतदन्यत्रेति नेह प्रयासः।। (पं० ..) एतदेव भावयति 'भवति च विशिष्टक्षयोपशमादितः' = विशिष्टाद्दर्शनमोहनीयादिगोचरात् क्षयक्षयोपशमोपशमात्, 'माग्र्गानुसारिबुद्धेः = सम्यग्दर्शनादिमोक्षमाग्र्गानुयायिप्रज्ञस्य, 'वचनम्' = उक्तलक्षणम्, 'अन्तरेणापि' = विनापि, तदर्थप्रतिपत्तिः' = वचनार्थप्रतिपत्तिः । कुत इत्याह क्वचित्' प्रज्ञापनीये, तथादर्शनात्' = वचनार्थप्रतिपत्तिदर्शनात् । कुत इदमित्याह 'संवादसिद्धेः' = यदिदं त्वयोक्तं तन्मया स्वत एव ज्ञातमनुष्ठितं वेत्येवं प्रकृतार्थाव्यभिचारसिद्धः । 'एवं च' वचनपौरुषेयत्वे, 'व्यक्त्यपेक्षया' = एकैकं सर्वदर्शिनमपेक्ष्य, 'नाऽनादिशुद्धवादापत्तिः' = न कश्चिदेकोऽनादिशुद्धः सर्वदर्शी वक्ता आपन्नः । कुत इत्याह 'सर्वस्य' सर्वदर्शिनः, 'तथा' = पूर्वोक्तप्रकारेण, 'तत्पूर्वकत्वात्' = वचनपूर्वकत्वात् । 'प्रवाहतस्तु' = परंपरामपेक्ष्य (पुनः), 'इष्यत एवा'नादिशुद्धः, प्रवाहस्यानादित्वाद्, 'इति' = एवं, न ममापि तत्त्वतोऽपौरुषेयं वचनं' यत् त्वया प्राक् प्रसञ्जितम्, 'इति' । 'प्रपञ्चितमेतद्', 'अन्यत्र' सर्वज्ञसिघ्द्यादौ, ('इति' अतः) 'नेह' 'प्रयासः' = प्रयत्नः । होता है इस प्रकार का नियम कहां रहा? उ० – नियम तो बना ही रहा । क्यों कि हम कह आये हैं कि आगमवचन से साध्य सामायिकादि पदार्थ अर्थात् ज्ञानयुक्त अनुष्ठान भी अर्थ-आगम है, शब्दात्मक आगम की तरह आगमवचन ही है; उसका स्वीकार कर लेने से जो मरुदेवी आदि में भी सर्वज्ञता सिद्ध हुई, वह वचनपूर्वक ही हुई, यह निश्शंक कह सकते हैं । शब्द - वचन मिलने के बाद भी ऋषभदेवादि को जो सर्वज्ञता सिद्ध होती है, वह भी इस ज्ञानानुष्ठान से ही होती है। तब मरुदेवी प्रमुख की सर्वज्ञता भले व्यवहार से वचनपूर्वक नहीं हुई, क्यों कि व्यवहार तो शब्दवचन को वचन कहता है, किन्तु निश्चयदृष्टि से वह वचनपूर्वक ही है; कारण निश्चयनय वचनसाध्य अर्थ को भी अर्थात्मक वचन मानता है। सहज अर्थप्राप्ति के हेतु :प्र० - शब्दवचन के बिना भी अर्थप्राप्ति कैसे हो सकती है? उ० - कभी कहीं दर्शनमोहनीय, ज्ञानदर्शनावरण एवं अंतराय कर्म के विशिष्ट क्षय, क्षयोपशम या उपशम स्वतः होने से सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग के अनुकूल प्रज्ञावाले पुरुष को शब्दात्मक वचन न मिलने पर भी तदुक्त सामायिकादि भाव की प्राप्ति हो जाती है, क्यों कि वैसा कहीं कहीं प्रज्ञापनीयता गुणवाले अर्थात् तत्त्वग्रहण के प्रति सरल भावुक हृदयवाले पुरुष में देखा जाता है। यह कैसे? इस प्रकार, कि उसका संवाद मिलता है, अर्थात् 'जो आपने कहा, वह मैंने स्वतः जान लिया या आचरण कर दिया', - ऐसा प्रस्तुत पदार्थ का अव्यभिचार याने नियत संबन्ध सिद्ध होता है। इस प्रकार वचन जब पौरुषेय सिद्ध हुआ, तब एकैक सर्वज्ञ को ले कर अनादिशुद्ध ईश्वरवाद सिद्ध नहीं हो सकता है, अर्थात् कोई एक अनादिशुद्ध सर्वज्ञ वक्ता प्राप्त नहीं है; कारण समस्त सर्वज्ञ पूर्वोक्त प्रकार से वचनपूर्वक ही होते हैं। हां, सर्वज्ञ की परंपरा को ले कर अनादि शुद्ध सर्वज्ञ मान्य है, क्यों कि वह परंपरा अनादि काल से चली आती है। भूतकाल में कोई काल ऐसा नहीं था कि जब शुद्ध सर्वज्ञ नहीं थे; अतः इस दृष्टि से ३२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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