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(ल० - आगमवचनमर्थज्ञानशब्दत्रिरू पम्:-) तथार्थ-ज्ञान-शब्दरूपत्वादधिकृतवचनस्य शब्दवचनापेक्षया नावचनपूर्वकत्वेऽपि कस्यचिद् दोषः, मरुदेव्यादीनां तथाश्रवणात्, वचनार्थप्रतिपत्तित एव तेषामपि तथात्वसिद्धेः तत्त्वतस्तत्पूर्वकत्वमिति ।
___(पं० -) न च जैनानां क्वचिदेकान्त इत्यपि प्रतिपादयन्नाह तथेति पक्षान्तरसमुच्चये, अर्थज्ञानशब्दरूपत्वाद्, अर्थः = सामायिकपरिणामादिः, ज्ञानं = तद्गतैव प्रतीतिः शब्दो = वाचकध्वनिः, तद्रूपत्वात् = तत्स्वभावत्वाद्, 'अधिकृतवचनस्य' = प्रकृतागमस्य । ततः 'शब्दवचनापेक्षया' = शब्दरूपं वचनमपेक्ष्य, 'न' = नैव, 'अवचनपूर्वकत्वेऽपि','कस्यचित्' 'सर्व्वदर्शिनो, 'दोषः' अनादिशुद्धवादापत्तिलक्षणः । समर्थकमाह मरुदेव्यादीनां' = प्रथमजिनजननीप्रभृतीनां स्वयमेव पक्वभव्यत्वानां, 'तथाश्रवणात्' = शब्दरूपवचनानपेक्षयैव सर्वदर्शित्व श्रवणात् । अथ 'तप्पुव्विया अरहये 'तिवचनं समर्थयन्नाह 'वचनार्थप्रतिपत्तित एव', वचनसाध्यसामायिकाद्यर्थस्य ज्ञानानुष्ठानलक्षणस्य; प्रतिपत्तित एव = अङ्गीकरणादेव, नान्यथा, 'तेषामपि' मरुदेव्यादीनाम्, 'अपि'शब्दादृषभादीनां च, तथात्वसिद्धेः' = सर्वदर्शित्वसिद्धेः, तत्त्वतो' = निश्चयवृत्त्या, न तु व्यवहारतोऽपि, 'तत्पूर्वकत्वं' = वचनपूर्वकत्वमिति।
प्र० - अरे ! आप वचन को पौरुषेय कहते हैं तब तो उसका वक्ता सदा सर्वज्ञ ही होगा, अन्य कोई असर्वज्ञ नहीं ! क्यों कि अन्यथा असर्वज्ञ से कथित होने से वह वचन अप्रमाण हो जाएगा। वक्ता प्रमाण-भूत हो तभी वचन प्रमाणभूत हो सकता है। इस लिए अब वह कोई बहुत पूर्व भूतकालवी वक्ता सर्वज्ञ वचनपूर्वक नहीं है यह न्यायमार्ग से स्वीकार करना होगा; न्याय यही कि उसको भी वचनपूर्वक मानने पर वचन अपौरुषेय होने की आपत्ति लगेगी।
उ० - ऐसा कहने के पूर्व जरा सोचिए कि बीजाकुर-दृष्टान्त ले कर वचन-सर्वज्ञ की अनादि धारा पूर्व जो कही गई, इससे यह आपका सर्वज्ञ अवचनपूर्वक होने का आरोप खण्डित हो जाता है। इस पर ठीक परामर्श कीजिए । ठीक परामर्श करने पर फिर ऐसा उपन्यास नहीं किया जा सकता।
आगमवचनं त्रिरूप अर्थ - ज्ञान - शब्द रू प :
अब जैनों को कहीं एकान्त स्वीकार्य नहीं है यह बतलाया जाता है। यह इस प्रकार, कि अगर अवचनपूर्वक सर्वज्ञ का भी पक्ष लें तब भी यह कह सकते हैं कि अर्थ, ज्ञान एवं शब्द, इन तीन स्वरूप प्रस्तुत वचन याने आगमवचनों में से, कोइ सर्वज्ञ, शब्दात्मक आगमवचन पूर्वक न हो, ऐसा भी बनता है। तब भी अनादिशुद्ध ईश्वर मान लिया ऐसी आपत्ति नहीं है। यहां देखिए, आगमवचन के तीन स्वरूप हैं, अर्थ-आगम, ज्ञान-आगम और शब्द-आगम । आगम सामायिक-परिणति आदि का अर्थात् पापत्याग की प्रतिज्ञा स्वरूप आत्मपरिणति आदि पदार्थों का उपदेश करता हैं, तो वे पदार्थ ही 'अर्थ-आगम' हैं। वैसे आगमोक्त पदार्थ का ज्ञान 'ज्ञान-आगम' है। एवं आगम के शब्द यानी उन अर्थों की वाचक ध्वनि 'शब्दआगम' कहलाती है। इन तीन में से शब्द-वचन पूर्वक न होने की दृष्टि से अवचनपूर्वक भी कोई सर्वज्ञ होते हैं। इसके समर्थक दृष्टान्त है प्रथमजिनपति श्री ऋषभदेव प्रभु की माता मरुदेवी आदि, जिनका भव्यत्व स्वतः पक्व हो जाने से वे शब्दात्मक आगम न पाए हुए भी सर्वज्ञ बन गए ऐसा सुना जाता है।
प्र० - अगर वे अवचनपूर्वक सर्वज्ञ हुए, तब 'अरहया तप्पुब्विया' का अर्थात् सर्वज्ञ वचनपूर्वक ही
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