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(ल० - अपौरुषेयत्वनिरसनम् - ) यथोक्तम्, 'असम्भव्यपौरुषेयं', 'वान्ध्येयखरविषाण - तुल्यमपुरुषकृतं वचनं विदुषाऽ(प्र०... विदुषाम )नुपन्यसनीयं विद्वत्समवाये, स्वरूपनिराकरणात् (प्र०... णत्वात्) । तथाहि, - 'उक्तिर्वचनम्, उच्यते इति वे 'ति पुरुषक्रियानुगतं रूपमस्य, एतक्रियाभावे कथं तद् भवितुमर्हति ?
(पं० -) वचनान्तरेणापि एनं समर्थयितुमाह 'यथोक्तं' धर्मसारप्रकरणे वचनपरीक्षायाम्, 'असम्भवि' न संभवतीत्यर्थः, 'अपौरुषेयम्' = अपुरुषकृतं, 'वचनमि'ति प्रक्रमाद् गम्यते । इदमेव वृत्तिकृद् व्याचष्टे 'वान्ध्येयखरविषाणतुल्यम्', असदित्यर्थः, अपुरुषकृतं वचनम् । ततः किमित्याह 'विदुषां' = सुधियाम् 'अनुपन्यसनीयं' = पक्षतयाऽव्यवहरणीयं, 'विद्वत्समवाये' सभ्यपरिषदि, कुत इत्याह ‘स्वरू पनिराकरणाद्' = अपौरुषेयत्वस्य साध्यस्य धम्मिस्वरूपेण वचनत्वेन प्रतिषेधात् । अस्यैव भावनामाह 'तथे'त्यादिना 'कथं तद्भवितुमर्हती'ति पर्यन्तेन; सुगमं चैतत् । प्रयोगः, - यदुपन्यस्यमानं स्ववचनेनापि बाध्यते, न तद्विदुषा विद्वत्सदसि उपन्यसनीयं, यथा 'माता मे वन्ध्या', 'पिता मे कुमारब्रह्मचारी'ति, तथा चापौरुषेयं वचनमिति । में अनेकों का एक समूह प्रदर्शित करने के लिए एकवद्भाव होता है, (उदाहरणार्थ 'गेहूँ चावल का भाव तेज है' - यहां चावल एकवचन में है,) इसलिए किया।
- 'धम्माइगरे नमसामि' - धर्म के आदिकर को मैं नमस्कार करता हूँ। यहां दुर्गतिप्रसृतान् जंतून् इत्यादि श्लोक में कहे 'धर्म' शब्द के व्युत्पत्ति-अर्थ के अनुसार धर्म वही है जो जीवों को दुर्गतिगमन से बचाता है और शुभ गति में स्थापित करता है। ऐसा धर्म दो प्रकार का होता है, - १. श्रुतधर्म, २. चारित्र धर्म । श्रुतधर्म है जिनागम का ज्ञान एवं उपासना । यहां इस सूत्र में इसका अधिकार है। ऐसे श्रुतधर्म के भरतादि क्षेत्र में, प्रारम्भ करने के स्वभाव वाले जो हैं वे हुए धर्म के आदिकर; और वे तीर्थंकर भगवान ही हैं।
प्र० - यहां प्रस्तुत तो श्रुतज्ञान की स्तुति है; फिर तीर्थंकर भगवान का यहां क्या प्रसंग है कि यहां 'धम्माइगरे नमंसामि' कहा जाता है ?
उ० - प्रसंग यही, कि श्रुतज्ञान तीर्थंकर भगवान से उत्पन्न होता है। अगर विश्व में तीर्थङ्कर भगवान ही न होते, तो श्रुतज्ञान का प्रादुर्भाव ही नहीं हो सकता । इसलिए श्रुतधर्म के वे पिता होने से उनका, यहां समुचित अवसर है; उनकी स्मृति करना यह अवसर प्राप्त है।
'अपौरुषेय वचन' का खण्डन :
श्रुतधर्म के आदिकर कहने से जो लोग वचन को सर्वथा अपौरुषेय अर्थात् 'वचन किसी भी पुरुष से उत्पन्न नहीं किन्तु सर्वथा नित्य है', - ऐसा मन्तव्य रखते हैं, उनके मत का खण्डन किया गया। 'किया गया' - यह अध्याहार है। सर्वथा अपौरुषेय का तात्पर्य यह है कि मात्र अर्थ रूप से नहीं किन्तु अर्थ, ज्ञान एवं शब्द सभी प्रकार से श्रुतधर्म यानी प्रवचन पुरुषोत्पन्न नहीं । अन्यथा जैनदर्शन श्रुतधर्म को याने प्रवचन को अर्थ रूप से तो अपौरुषेय यानी नित्य मानता ही है, क्यों कि प्रवचनोक्त पदार्थ यानी तत्त्व तो सभी तीर्थंकरों के प्रवचनों में वेही - के-वेही रहते हैं; नये नये तीर्थंकर कोई नये नये तत्त्व नहीं बनाते हैं। तत्त्व तो सदा के लिए जो हैं सो हैं; मात्र शब्द रूप से एवं ज्ञान रूप से उनका प्रचार प्रत्येक तीर्थंकर के द्वारा शुरू किया जाता है। इस अपेक्षा से प्रवचन पौरुषेय है । तो जैन मत वह पौरुषेय-अपौरुषेय होने का अनेकान्त हुआ । इससे एकान्ततः अपौरुषेयत्व कहना अप्रामाणिक है।
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