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________________ ( ल० - गाथा ५ - ) कीर्त्तनं कृत्वा चेतःशुद्ध्यर्थं प्रणिधि ( प्र०... प्रणिधान) माह 'एवं मए अभिथुआ वियरयमला पहीणज़रमरणा । चउवीसं पि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयंतु ॥ ५ ॥' व्याख्या- 'एवं' अन्तरोदितेन विधिना । 'मये 'त्यात्मनिर्देशमाह। 'अभिष्टुता (प्र०.... स्तुता ) ' इति आभिमुख्येन स्तुता अभिष्टुताः ( प्र०...स्तुता ), स्वनामभिः कीर्त्तिताः इत्यर्थः । किं विशिष्टास्ते 'विधूतरजोमलाः ', तत्र रजश्च मलं च रजोमले ' विधूते' प्रकम्पिते, अनेकार्थत्वाद्धातूनाम् अपनीते रजोमले यैस्ते तथाविधाः । तत्र बध्यमानं कर्म्म रजोऽभिधीयते, पूर्वबद्धं तु मलमिति । अथवा बद्धं रजः, निकाचितं मलम्; अथवैर्यापथं रजः, सांपरायिकं मलमिति । ( ल० - ) यतश्चैवंभूता अत एव 'प्रक्षीणजरामरणाः', कारणाभावादित्यर्थः । तत्र 'जरा ' वयोहानिलक्षणा, 'मरणं' प्राणत्यागलक्षणं, प्रक्षीणे जरामरणे येषां ते तथाविधाः । 'चतुर्विंशतिरपि', 'अपि' शब्दादन्येऽपि । 'जिनवरा: ' = श्रुतादिजिनप्रधानाः । ते च सामान्यकेवलिनोऽपि भवन्ति, अत आह 'तीर्थकरा:' इति । एतत् समानं पूर्वेण । 'मे' = मम, किं ? 'प्रसीदन्तु' = प्रसादपरा भवन्तु । 1 प्रo - 'प्रसादकारी हों' यह कथन क्या प्रार्थना है, या नहीं ? अगर प्रार्थना हो, तब तो यह ठीक नहीं, क्यों कि वह आशंसा स्वरूप हुई। और आशंसा वर्ज्य है; वन्दनादि धर्मसाधना निराशंस भाव से करनी चाहिए। यदि कहें कि 'वह प्रार्थना नहीं है', तब यह बतलाइए कि 'पसीयंतु' उक्ति का उपन्यास निष्प्रयोजन है या सप्रयोजन ? अगर कहें निष्प्रयोजन है, तब तो यह वन्दनसूत्र सुचारु नहीं रहा, क्यों कि निष्प्रयोजन उपन्यास से घटित हुआ । सप्रयोजनपदोपन्यास से युक्त ही सूत्र सुचारु होता है। यदि कहें 'उपन्यास सप्रयोजन हैं', तब तो प्रश्न यह है कि अयथार्थ होने से प्रयोजन की सिद्धि कैसे होगी ? उ०- यहां हमारा कहना है कि यह प्रार्थना नहीं है । कारण, यहां प्रार्थना का लक्षण उपपन्न नहीं हो सकता। प्रसाद की प्रार्थना तो प्रार्थनीय पुरुष में अप्रसाद होने की आक्षेपक है, सूचक है, क्यों कि लोक में ऐसा प्रसिद्ध है; कारण, देखा जाता है कि जो अप्रसन्न है, उसीके प्रति प्रसाद की प्रार्थना की जाती है, अप्रसन्न न हो, प्रसन्न ही हो, तब प्रसाद की प्रार्थना नहीं की जाती है। अथवा भावी अप्रसाद न हो, इसलिए भी प्रार्थना की जाती है। इसमें कारण पूर्वोक्त ही है; अर्थात् वह यह कि भविष्य में जो अप्रसन्न हो ऐसी संभावना है, उसके प्रति प्रसादरक्षार्थ प्रार्थना की जाती दिखाई पड़ती है, तब तो यहां अगर प्रार्थना हो, तो वह भावी अप्रसाद को आक्षेपक होगी । चाहे पूर्व अप्रसाद हो या भावी अप्रसाद हो, उभयथा प्रभु में अवीतरागता की आपत्ति लगेगी ! अतः प्रार्थना न होने पर भी 'पसीयंतु' का उपन्यास प्रणिधान के प्रयोजन वाला होने से निरर्थक नहीं है। वीतराग प्रार्थना में अनुचित अर्थापत्ति : तीर्थंकर भगवान के प्रति प्रसाद की प्रार्थना करने का, यदि इस स्तुति सूत्र का तात्पर्य हो, तब भगवान में वीतरागता की आपत्ति उपस्थित होती है, इसलिए फलतः यहां स्तुतिवचन के धर्म का अतिक्रमण होता है, अर्थात् स्तुतिधर्म तो दोषारोपण नहीं किन्तु गुणगान है, किन्तु यहां उसका उल्लंघन होते है। क्यों ? बिना सोचा हुआ अभिधान करने से अवीतरागता रूप दोष की अर्थापत्ति का आक्रमण सुलभ हो जाता है। अर्थापत्ति का अर्थ है 'अर्थात् प्राप्त होना' अर्थापत्ति यह कि जैसे कहा जाए कि ' तगड़ा देवदत्त दिन में भोजन नहीं करता है', तब इस कथन से अर्थात् प्राप्त है कि रात्रि में अवश्य भोजन करता है; इसी प्रकार भगवान से अगर प्रार्थना वचन कहा कि Jain Education International ३०४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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