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से निर्मित शय्या पर शयन का दोहद देव
से पूरित किया गया २०. मुनिसुव्रतस्वामी माता मुनि की तरह अच्छे व्रत वाली हुई सुव्रत वाले मुनि २१. नमिनाथ नगररोधक शत्रु किले पर माता के दर्शनपरीषहादि को नमाने वाले
से नम गया २२. नेमिनाथ रिष्टरत्नमय चक्रधारा माता ने देखी रिष्ट, पाप के दूरीकरणार्थ
चक्र धारा संपन्न २३. पार्श्वनाथ माताने अंधेरी रातमें भी सर्प को पास में देखा सर्व भाव देखने वाले २४. वर्धमानस्वामी | ज्ञातकुल में धन धान्यादि की वृद्धि हुई जन्म से ज्ञानादि से बढ़ते हुए।
५वी गाथा की व्याख्या :
२४ भगवान का कीर्तन कर के अब चित्त की विशुद्धि के लिए प्रणिधान कहते हैं 'एवं मए....' इत्यादि। 'एवं मए अभिथुआ विहुयरमला पहीणजरमरणा । चउवीसं पि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयंतु ॥५'
व्याख्या इस प्रकार है,- 'एवं' = पूर्वोक्त विधि से। 'मए' = मुझ से, यह पद स्तुति करने वाले की आत्मा का निर्देशक है। 'अभिथुआ' = सामने रह कर स्तुति के विषय किये हुए, अर्थात् अपने नाम द्वारा कीर्तित किए गए। वे कैसे? 'विहुयरयमला' = रज एवं मल अत्यन्त कंपित किए गए हैं, धातु के अनेक अर्थ होते हैं, इसलिए 'विहुय' अर्थात् दूर किए गए हैं, - जिनके द्वारा ऐसे । वहां बंधाता हुआ कर्म ‘रज', एवं पूर्वबद्ध कर्म 'मल' कहलाता है; अथवा बंधाया हुआ कर्म रज और निकाचित (अत्यन्त गाढ़बद्ध किया हुआ) कर्म मल कहलाता है। ईर्यापथ कर्म यानी वीतराग अवस्था में बद्ध कर्म 'रज' और सांपरायिक कर्म अर्थात् सकषाय अवस्था में बद्ध कर्म 'मल' कहा जाता है। उन रज-मल को जिन्होंने निर्मूल किया नष्ट किया है ऐसे तीर्थङ्कर 'विहुयरयमल' हुए।
गाथार्थं - जिन्होंने रज और मल का नाश कर दिया है एवं जिनकी जरा और मृत्यु दूर हो गई है वे चौबीस तथा अन्य तीर्थङ्कर मुझ पर प्रसाद करें। यह प्रसाद की याचना प्रार्थना रूप नहीं किन्तु प्रणिधान स्वरूप है, हृदय की शुद्ध आशंसा रूप है, यह आगे स्पष्ट करते हैं।
जिस कारण से 'विधूतरजमल हैं, इसीलिए वे पहीणजरामरणा' प्रक्षीणजरामरण हैं, क्यों कि जरामरण का अब कोई कारण नहीं रहा । वहां 'जरा' वय (उमर) की हानि स्वरूप है, और 'मरण' प्राणत्याग स्वरूप है। जरामरण जिसके अत्यन्त क्षीण-नष्ट हो गए हैं, वे हुए प्रक्षीणजरामरण । 'चउवीसं पि' = चौबीस भी, 'भी' शब्द सं अन्य भी तार्थंकर यहां ग्राह्य हैं । 'जिणवरा' = श्रुतजिन, अवधिजिन आदि जिनों में प्रधान । वे सामान्य केवलज्ञानी भी होते हैं इसलिए कहते हैं 'तित्थयरा' = तीर्थंकर। ये पूर्व प्रथम गाथा में कहे हुए 'धम्मतित्थयरे' पद के समान हैं। 'मे' = मुझे । 'पसीयंदु = प्रसादकारी हों।
‘पसीयंतु' पद से प्रार्थना नहीं है :
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