________________
(ल०-गाथा २-३-४- ) तत्र यदुक्तं 'कीर्त्तयिष्यामि 'ति तत् कीर्त्तनं कुर्वन्नाह
उसभमजिअं च वंदे संभवमभिणंदणं च सुमई च । पउम्मपहं सुपासं जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥ २ ॥ सुविहिंच पुप्फदंतं सीअल-सिज्जंस - वासुपुज्जं च । विमलमणंतं च जिणं धम्मं संतिं च वंदामि ॥ ३ ॥ कुंथुं अरं च मल्लि वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिट्ठनेमिं पासं तह वद्धमाणं च ॥ ४ ॥ एता निगदसिद्धा एव । नामान्वर्थनिमित्तं त्वावश्यके 'उरू सु उसभलञ्छण उसभं सुमिणमि ते उसभजिणो ।' इत्यादिग्रन्थादवसेयमिति ।
प्र०-तब तो 'केवली' इतना ही कहना सुन्दर है, 'लोगस्स उज्जोअगरे' इत्यादि पद क्यों कहे जाय ?
उ०- व्यभिचार निवारणार्थ वे आवश्यक हैं; क्यों कि इस शासन में श्रुतकेवली आदि अन्य भी केवली होते हैं (श्रुतवली समस्त द्वादशांगी प्रमुख श्रुत के पारगामी) लेकिन उनके विषय में यह प्रतीति न हो कि २४ तीर्थंकर ऐसे श्रुतकेवली आदि होते हैं, इसलिए उनका निषेध करने के लिए यहां 'लोगस्स उज्जोअगरे' इत्यादि पद दिये गए हैं।
इस प्रकार यानी एकैक पद की तरह दो-दो इत्यादि पदों के संयोग की अपेक्षा से भी विशेषणों का साफल्य क्या क्या है यह विचित्र नयमत के अभिज्ञ पुरुष से स्वबुद्धि अनुसार वक्तव्य है । इसलिए अब यहां विस्तार नहीं किया जाता है। इतना तो पद समझौती मात्र है।
२-३ -४ गाथा: -
अब यहां प्रथम गाथा में जो कहा गया कि 'कित्तइस्सं अर्थात् मैं कीर्त्तन करूंगा, वह कीर्तन करते हुए कहते हैं- 'उसभमजिअं...', 'सुविहिं च....', 'कुंथुं.....' इत्यादि ।
उसभमजिअं च वंदे संभवमभिणंदणं च सुमई च । पउम्मपहं सुपासं जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥ २ ॥ सुविहिं च पुप्फदंतं सीअल - सिज्जंस - वासुपुज्जं च । विमलमणंतं च जिणं धम्मं संतिं च वंदामि ॥ ३ ॥ कुंथुं अरं च मल्लि वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिट्ठनेमिं पासं तह वद्धमाणं च ॥ ४ ॥
गाथाएँ उच्चारण से ही स्पष्ट हैं। इनका अर्थ:- • (१) मैं ऋषभदेव और अजितनाथ को वन्दन करता हूँ; संभवनाथ और अभिनन्दनस्वामी एवं सुमतिनाथ, पद्मप्रभस्वामी, सुपार्श्वनाथ तथा चन्द्रप्रभजिन को मैं वन्दन करता हूँ । • (२) मैं सुविधिनाथ अपर नाम पुष्पदन्तस्वामी, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ और वासुपूज्यस्वामी, विमलनाथ और अनन्तनाथ जिन, धर्मनाथ एवं शान्तिनाथ को वन्दन करता हूँ। (४) कुंथुनाथ, अरनाथ एवं मल्लिनाथ को मैं वन्दन करता हूँ। मुनिसुव्रतस्वामी एवं नमिजिन को मैं वन्दन करता हूँ । अरिष्टनेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा वर्द्धमानस्वामी को मैं वन्दन करता हूँ । • ये गाथाएँ स्पष्टार्थ होते हुए भी प्रत्येक अर्हद् - नाम का व्युत्पत्ति अर्थ 'उरु उसलञ्छृणं उसभं सुमिणंमि, तेण उसभ जिणो ।' इत्यादि 'आवश्यक निर्युक्ति' ग्रन्थ से समझ लेना । यह इस प्रकार, - ऋषभदेव प्रभु की जांघ में ऋषभ (वृषभ) का चिह्न था, एवं प्रभु की माता ने प्रभु गर्भ में आये तब ऋषभ को देखा था, इसलिए प्रभु का नाम 'ऋषभनाथ' रखा गया;..... इत्यादि ।
यहां चौबीस प्रबु के नाम ऐसे हैं कि जो प्रत्येक प्रभु के गर्भकाल में कुछ न कुछ विशेषता बनने के कारण रखे गये थे, एवं जो व्याकरण शास्त्र की व्युत्पत्तिवशात् भी किसी भी अरिहंत को सङ्गत हो सकते हैं अर्थात्
३०१
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org