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________________ (ल०-) आह, यद्येवं केवलिन इत्येतावदेव सुन्दरं, शेषं तु लोकस्योद्योतकरानित्यादि किमर्थम् (प्र०.... अपि न वाच्यम्) ? इत्यत्रोच्यते, - इह श्रुतकेवलिप्रभृतयोऽन्येऽपि विद्यन्त एव केवलिनः, तन्माभूत तेष्वेव (वं ) संप्रत्यय इति तत्प्रतिषेधार्थं लोकस्योद्योतकरानित्याद्यपि वाच्यमिति । एवं द्व्यादिसंयोगापेक्षयापि विचित्रनयमताभिज्ञेन स्वधिया (प्र०..... सुधिया) विशेषणसाफल्यं वाच्यमित्यलं विस्तरेण । गमनिकामात्रमेतदिति । प्र०-'केवली' पद क्यों दिया गया ? नहीं देना चाहिए, क्यों कि पूर्वोक्त लोकोद्योतकर इत्यादि स्वरूप वाले अरिहंत केवली अर्थात् केवलीज्ञानी होते ही है, इसमें कोई व्यभिचार नहीं कि वैसे अरिहंत केवली हो या न भी हो। इसलिए 'केवली' विशेषण देने की कोई आवश्यकता नहीं है। अगर व्यभिचार हो अर्थात् विशेष्य में उस धर्म एवं धर्माभाव दोन का संभव हो तभी धर्माभाव के निवारणार्थ विशेषणपद दिया जाता है । विशेषणपद की सफलता व्यभिचारवारण में होती है; उदाहरणार्थ 'नील कमल', यहाँ और भी रक्त कमल आदि जो होते हैं, उनका प्रस्तुत में ग्रहण न किया जाए इसलिए 'नील' विशेषण दिया गया हैं जो कि सार्थक है। लेकिन लोकोद्योतकर, धर्म तीर्थंकर, जिन और अरिहंत कहाँ केवली अकेवली दो प्रकार के होते हैं कि अकेवली के अग्रहण के लिए केवली' विशेषण दिया जाए ? हां, आप कह सकते हैं कि 'काला भ्रमर, सफेद बक' इत्यादि में व्यभिचार न होने पर भी काला एवं सफेद विशेषण दिये जाते हैं, तो विशेषण का ग्रहण व्यभिचार होने पर ही होता है यह नियम कहाँ रहा? लेकिन हम कहते हैं कि इन दृष्टान्तो में विशेषणपद की की गई योजना प्रयासमात्र के सिवा किस अर्थ की पुष्टि करती है ? कुछ नहीं, श्रममात्र है। उ०-यह प्रश्न ठीक नहीं, क्योंकि आप अभिप्राय नहीं समझे। अभिप्राय यह है कि, 'केवली ही पूर्वोक्त स्वरूप वाले अरिहंत होते हैं, दुसरे नहीं' - ऐसा नियम प्रदर्शित करने के लिए ही यहां 'केवली' पद का उपन्यास होने से यह स्वरूप सूचित करने के लिए ही दिया गया है, अतः वह निर्दोष है। यह ध्यान में रखिए कि ऐसा कोई नियम नहीं है कि विशेषण का साफल्य मात्र व्यभिचार संभवित होने पर ही हो सकता हैं, क्योंकि विशेष्य, विशेषण उभयपद के व्यभिचार में, या दो में से एक पद के व्यभिचार में, या तो स्वरूप के सूचन में उसका प्रयोग होता हुआ शिष्टजनों की उक्तियों में दिखाई पडता हैं; उदाहरणार्थ, वहां उभय पद के व्यभिचार में 'नील कमल', एक पद के व्यभिचार में पानी द्रव्य, पृथ्वी द्रव्य.....' और स्वरूप-सूचन में 'परमाणु अपदेश होता है' इत्यादि। 'नील कमल' में विशेष्य, विशेषण उभयपद का व्यभिचार इस प्रकार है,-नील भी कमल होता है, एवं रक्त भी कमल होता है; एवं कमल भी नील होता है, एवं घड़ा भी नील होता है। इसलिए स्थलविशेष में अमुक ही कमल के ग्रहणार्थ 'नील' पद दिया जाता है, स्थलविशेष में अमुक ही नील वस्तु के ग्रहणार्थ 'कमल' पद दिया जाता है। एक पद का व्यभिचार इस प्रकार, -द्रव्य तो पानी भी होता है, पृथ्वी भी होता है; लेकिन पानी यह द्रव्य भी होता है और कई अद्रव्य भी होता है ऐसा नहीं। तब अमुक ही द्रव्य मंगवाने के लिए कहा जाता है कि पानी द्रव्य ही लाओ' या 'पृथ्वी द्रव्य ही लाओ' इत्यादि । इस प्रकार स्वरूप सूचित करने के लिए भी विशेषण दिया जाता है जैसे कि 'परमाणु अप्रदेश होता है', 'अप्रदेश परमाणु की अवगाहना एक ही आकाशप्रदेश होती है' इत्यादि। 'अ-प्रदेश' का मतलब है जिसके और अंश नहीं है, जो स्वयं सूक्ष्मतम अंश प्रमाण होता है। इन तीनों स्थल में विशेषण सफल होने से प्रस्तुत में स्वरूप -सूचन के लिए 'केवली' विशेषण का प्रयोग इष्ट है, गलत नहीं। ३०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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