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________________ ( ल०-आगमगाथायां वन्दनकायो० समावेश:- ) ' अत्रायं न गृहीत इति' चेत्, न, 'आदि' शब्दावरुद्धत्वाद्, उपन्यस्तगाथासूत्रस्योपलक्षणत्वाद्, अन्यत्रापि चागमे एवंविधसूत्रादनुक्तार्थसिद्धेः । उक्तं च, 'गोसमुहणंतगादी आलोइय देसिए य अइयारे । सव्वे समाणइत्ता हियए दोसे ठवेज्जाहि ॥' अत्र मुखवस्त्रिकामात्रोक्तेः 'आदि' शब्दाच्छेषोपकरणादिपरिग्रहो ऽवसीयते सुप्रसिद्धत्वात् प्रतिदिवसोपयोगाच्च न भेदेनोक्त इति । ' अनियतत्वाद् दिवसातिचारस्य युज्यत एवेहादिशब्देन सूचनं, नियतं च वन्दनं, तत्कथं तदसाक्षाद्ग्रह इति चेत्, न, तत्रापि रजोहरणाद्युपधिप्रत्युपेक्षणस्य नियतत्वात् । 'समानजातीयोपादानादिह एतद्ग्रहणमस्त्येव । समानजातीयं च मुखवस्त्रिकायाः शेषोपकरणमिति' चेत्, तत्रापि तन्मानकायोत्सर्गलक्षणं समानजातीयत्वमस्त्येवेति मुच्यतामभिनिवेशः । लक्षण इसमें नहीं है; वह अभिभव कायोत्सर्ग एक रात्रिक आदि प्रतिमा यानी अभिग्रहयुक्त ध्यानावस्था या किसी मरणान्त उपद्रव विशेष में किया जाता है। यह वन्दन - प्रत्यय कायोत्सर्ग तो चेष्टा- कायोत्सर्ग है, और बहुत छोटा भी चेष्ठा कायोत्सर्ग उक्त आठ श्वासोच्छ्वास-प्रमाण होता है। आगम में कहा गया है कि उद्देससमुद्देसे सत्तावीसं अणुण्णवणियाए । अट्ठेव य उस्सासा पट्ठवण-पडिक्कमणमादी ।। उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा - संपादन में सत्ताईस श्वासोच्छ्वास और प्रस्थापन - प्रतिक्रमणादि में आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना । ('उद्देश' अर्थात् सूत्र पढ़ने की प्रवृत्ति; 'समुद्देश' अर्थात् पढे हुए सूत्र को स्थिर एवं स्वनामवत् परिचित करना; 'अनुज्ञासंपादन' अर्थात् सूत्र का सम्यग् धारण और अन्यों में विनियोग करने हेतु वाचनाचार्य की आशीर्वादयुक्त अनुज्ञा प्राप्त करना; 'प्रस्थापन' अर्थात् स्वाध्याय- प्रारम्भ का एक अनुष्ठान विशेष; 'प्रतिक्रमण' अर्थात् स्वाध्याय- प्रतिक्रमण हेतु अनुष्ठान;) इत्यादि में आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करना । आगमगाथा में वन्दन कायोत्सर्ग का समावेश प्र०- 'उद्देश- समुद्देसे' इत्यादि गाथा में कायोत्सर्ग-विषय के अन्तर्गत उद्देश आदि की तरह वन्दन गृहीत तो नहीं है ? -- उ०- ऐसा मत कहिए, ‘आदि' शब्द से वह गृहित ही है, क्योंकि उपन्यस्त गाथासूत्र तो उपलक्षण है, अर्थात् औरों के ग्रहण का सूचक है। दूसरे स्थल में भी आगम में इस प्रकार के सूत्र से अनुक्त पदार्थ सूचित होना सिद्ध है । जैसे कहा गया है कि 'गोसमुहणंतगादी आलोइय देसिए य अइयारे । सव्वे समाणइत्ता, हियए दोसे ठवेज्जाहि ॥' अर्थात्, ‘सायंकाल के प्रतिक्रमण - आवश्यक में मुखवस्त्रिकादि का प्रत्युपेक्षण कर, दैवसिक अतिचार की आलोचना (प्रगटीकरण) का सूत्र पढ़ कर के (प्रतिक्रमणार्थं) हृदय के भीतर दोषों को ध्यान में लाकर स्मरण करना।' यहां मात्र मुखवस्त्रिका साक्षात् शब्दतः उल्लिखित है और 'आदि' शब्द से शेष उपकरणादि का ग्रहण किया गया अवगत होता है; क्यों कि वे सुप्रसिद्ध हैं और प्रतिदिन उनका उपयोग किया जाता है; इसलिए उनका शब्दतः अलग उल्लेख नहीं किया गया । Jain Education International २९० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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