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________________ ( ल० ०- कायोत्सर्गमानेऽर्थापत्तिः ) अथ ' भवत्वयमर्थः कायोत्सर्गकरणे, न पुनरयं स इति । (पं०-) 'अथे 'ति पराकूतसूचनार्थः । ' भवतु' = प्रवर्त्तताम्, 'अयं' नियतप्रमाणकायोत्सर्गलक्षणो, ‘अर्थः' वन्दनाद्यर्थः ‘कायोत्सर्गकरणे ' अभ्युपगम्यमाने, एवं तर्हि किमत्र क्षुण्णमिति ? आह 'न पुनः ' = न 'अयं' दण्डकार्थः, 'स' = कायोत्सर्ग: । 'इति:' परवक्तव्यतासमाप्त्यर्थः । (ल०-कायोत्सर्गनियतप्रमाणसिद्धि:-) किमर्थमुच्चारणमिति वाच्यम् । वन्दनार्थमिति चेत्, न, अतदर्थत्वात्; अतदर्थोच्चारणे चातिप्रसङ्गात् । कायोत्सर्गयुक्तमेव वन्दनमिति चेत्, कर्तव्यस्तर्हि स इति । भुजप्रलम्बमात्रः क्रियत एवेति चेत्, न तस्य प्रतिनियत ( प्र०..... नित्य ) प्रमाणत्वात् ; चेष्टाभिभवभेदेन द्विप्रकारत्वात् । उक्तं च, 'सो उस्सग्गो दुविहो, चेट्टाए अभिभवे य णायव्वो । भिक्खायरियाइ पढमो, उस्सग्गभिओ ....उं ) जणे बीओ ॥' ( प्र०.... अयमपि चानयोरन्यतरः स्यात् । अन्यथा कायोत्सर्गत्वायोगः । न चाभिभवकायोत्सर्ग एषः, तल्लक्षणायोगात्, एकरात्रिक्यादौ तद्भावात्; चेष्टाकायोत्सर्गस्य चाणीयसोऽप्युक्तमानत्वात् । उक्तं च, 'उद्देससमुद्देसे सत्तावीसं अणुण्णवणियाए । अद्वेव य उस्सासा पट्ठवणपडिक्कमणमाई ॥' प्रमाणरहित कायोत्सर्ग मानने वाले दूसरे का अभिप्राय सूचित करते हैं कि "ठिक है, यह अष्ट श्वासोच्छ्वासादि नियत प्रमाण की कायोत्सर्ग-वस्तु तो जहां वन्दनादि हेतु कायोत्सर्गकरण स्वीकार्य हो, वहां हो, यहां नहीं । अगर कहें, – ‘इससे प्रस्तुत में क्या बिगडता है, ' उत्तर में यही कि प्रस्तुत कायोत्सर्ग तो दण्डकसूत्र का होने से वैसा नियत प्रमाण वाला वन्दनाद्यर्थ कायोत्सर्ग नहीं है ।" - कायोत्सर्ग में नियत उच्छवास प्रमाण का मंडन : अन्यों का यह अभिप्राय ठीक नहीं है; क्यों कि तब तो कहना होगा कि यह 'वंदणवत्तियाए....' इत्यादि उच्चारण क्यों किया जाता है ? यदि कहें 'वन्दन के लिए', तो ऐसा कहना उचित नहीं, क्योंकि उस पाठ का उच्चारण इसके लिए नहीं है; और अन्य हेतु से उच्चारण करेंगे तब अतिप्रसङ्ग होगा, कोई भी सूत्र विवक्षित हेतु से भिन्न हेतु लक्ष में रख कर भी उच्चारित किया जाएगा। अगर कहें 'प्रस्तुत सूत्रोच्चारण का उद्देश कायोत्सर्गसहित वन्दन है, तब कायोत्सर्ग करना चाहिए। 'हां, हाथ को लटकते रखने मात्र का कायोत्सर्ग किया जाता है', - ऐसा यदि कहा जाए, तो यह ठीक नहीं, क्यों कि ऐसा कायोत्सर्ग तो नियत यानी अमुक निश्चित प्रमाण का होता है। इसका कारण यह है : द्विविध कायोत्सर्गः चेष्ठाकायो, अभिभवकायो० : कायोत्सर्ग दो प्रकार का होता है, १. चेष्ठा - कायोत्सर्ग, और २. अभिभव - कायोत्सर्ग। आगम में कहा गया है कि वह कायोत्सर्ग द्विविध जानना, १. चेष्ठा और २. अभिभव के विषय में । भिक्षाचर्या में पहला चेष्ठा कायोत्सर्ग होता है, और उपद्रव-प्रतिमा ध्यान में दूसरा अभिभव-कायोत्सर्ग होता है। यह वंदणवत्तियाए वाला प्रस्तुत कायोत्सर्ग चेष्ठा और अभिभव दो में से किसी एक प्रकार का होना चाहिए, अन्यथा वह कायोत्सर्ग ही नहीं होगा; क्योंकि उक्तानुसार कायोत्सर्ग दो प्रकार का ही होता है। अब प्रस्तुत कायोत्सर्ग अभिभव-कायोत्सर्ग तो नहीं है, क्यों कि उसके Jain Education International २८९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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