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________________ (ल०-आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो) आक्रियन्त इत्याकारा आगृह्यन्त इति भावना; सर्वथा कायोत्सर्गापवादप्रकारा इत्यर्थः । तैः आकारैर्विद्यमानैरपि, न भग्नोऽभग्नः, भग्नः सर्वथा नाशितः । न विराधितोऽविराधितः, विराधितः देशभग्नोऽभिधीयते । भूयात् 'मे' = मम कायोत्सर्गः। (अपवादप्रकारा:-) तत्रानेन सहजास्तथा अल्पेतरनिमित्ता आगन्तवो नियमभाविनश्शाल्पा बाह्यनिबन्धना बाह्याश्चातिचारजातय इत्युक्तं भवति,:- • उच्छ्वासनिःश्वासग्रहणात् सहजा:, सचित्तदेहप्रतिबद्धत्वात्; कासितक्षुतजृम्भितग्रहणात् त्वल्पनिमित्ता आगन्तवः, स्वल्पपवनक्षोभादेस्तद्भावात्; • उद्गारवातनिसर्गभ्रमिपित्तमूर्छाग्रहणात् पुनर्बहुनिमित्ता आगन्तव एव, महाजीर्णादेस्तदुपपत्तेः; सूक्ष्माङ्गखेलदृष्टिसंचारग्रहणाच्च नियमभाविनोऽल्पाः, पुरुषमात्रे सम्भवात्ः • एवमाधुपलक्षितग्रहणाच्च बाह्यनिबन्धना बाह्याः, तद्वारेण प्रसूतेरिति । नमस्कार से न पारने तक का सामान्य प्रमाण विविक्षित नहीं है किन्तु "झाणेणं' पद वश नियत अमुक प्रमाण के ध्यान का कायोत्सर्ग सूचित है। अतः जिस क्रिया में जितने प्रमाण का कायोत्सर्ग, जैसे कि एक नवकार, या एक लोगस्स का) कायोत्सर्ग करना कहा गया है, वहां उतने प्रमाण के यानी विशिष्ट प्रमाण के कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा की जाती है। वह भी पूरा करके नमस्कार न पढे वहां तक के कायो० की प्रतिज्ञा है। इसलिए कायो० के लिये कहे गये विशिष्ट प्रमाण का चिंतन पूरा करने के बाद भी नमस्कार न पढ़ने वाले को कायोत्सर्ग भङ्ग का दोष लगता है; एवं प्रमाण पूरा न करने पर भी नमस्कार पढकर पारने वाले को भी भङ्ग का दोष है। और यह दोष प्रस्तुत में आगारयुक्त कायोत्सर्ग चालू रख कर आगार के आधार पर वस्त्र ग्रहण करने पर भी नहीं लगता। महर्षिप्रणीत शास्त्र में कहा गया है कि;१ 'अगणी उ २ छिदिज्ज व ३ बोहिय ४ खोभाइ ५ दिहडक्को वा । आगारेहिं अभग्गो उस्सग्गो एवमाईहिं ।।' अर्थात् (१) अग्नि का स्पर्श होता हो; (२) अपने एवं कायोत्सर्गार्थ आलम्बनभूत स्थापनाचार्यादि के बीच की भूमि का कोई उल्लंघन करने को तत्पर होः (३) मनुष्यापहारी चोर का उपद्रव हो; (४) स्वराष्ट्र के आन्तरविग्रह या परराष्ट्र के आक्रमण का विक्षोभ हो; (५) 'आदि' शब्द से घर में आग लगी हो अथवा सर्पादि से दंश लगा हो-इत्यादि आगारों से अभग्न कायोत्सर्ग किया जाता है, अर्थात् वहां प्रतीकार करने पर भी कायोत्सर्ग का भङ्ग नहीं है। 'आगारोहिं अभग्गो अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो' : आगार का अर्थ आकार है। आकार अर्थात् जो अपवाद की मर्यादा रूप से कराते हैं, यानी गृहीत होते हैं ऐसी भावना करनी; तात्पर्य, सर्वथा कायोत्सर्ग में अपवाद के प्रकार ये यहां आगार हैं । कायो० निरपवाद नहीं चिन्तु अपवाद युक्त, आगारयुक्त किया जाता है। इन आगारों से अभग्न कायो० मतलब ये उच्छ्वासादि आगार होते हुए भी, अर्थात् उच्छ्वासादि रूप से काया सचेष्ट होते हुए भी, अपवाद पहले से रखे जाते हैं, इसलिए, सापवाद (सागार) कायोत्सर्ग अभग्न हो, अविराधित हो। 'अभग्न' अर्थात् भग्न नहीं, सर्वथा नष्ट नहीं किया गया; 'अविराधित' यानी विराधित नहीं अंश से भी खण्डित न किया गया । 'हुज्ज मे काउस्सग्गो'-मेरा कायोत्सर्ग हो । सारांश, इन आगारों की चेष्ठा छोडकर और बातों में मेरी काया का उत्सर्ग यानी निश्चेष्ट स्थापन अभग्नअविराधित हो । फलतः इन आगारों में दिये गये अपवादों की क्रियाएँ करने पर भी वह अभग्न गिना जाता है। २८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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