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________________ (ल०-चित्तधर्माणामिक्ष्वाद्युपमाः-) इक्षु-रस-गुड-खण्ड-शर्करोपमाश्चित्तधर्माः इत्यन्यैरप्यभिधानात्, इक्षुकल्पं च तदादरादि, इति भवति, अतः क्रमेणोपायवतः शर्करादिप्रतिमं श्रद्धादीति । (पं०-) परमतेनापि श्रद्धादीनां मन्दतीव्रादित्वं साधयन्नाह 'इक्ष-रस-गुड-खण्ड-शर्करोपमाः' इक्ष्वादिभिः पञ्चभिर्जनप्रतीतैः 'उपमा' = सादृश्यं येषां ते तथा, 'चित्तधर्माः' = मनः परिणामाः, 'इति' = एतस्यार्थस्य, 'अन्यैरपि' तन्त्रान्तरीयैः किं पुनरस्माभिः, ? 'अभिधानात्' = भणनात् । प्रकृतयोरेवोपमानोपमेययोर्योजनामाह 'इक्षुकल्पं च' = इक्षुसदृशं च, 'तद् आदरादि', तस्मिन् = कायोत्सर्गे, आदरः = उपादेयभावः, 'आदि' शब्दात् करणे प्रीत्यादि । 'इति' = अस्मात्कारणाद्, 'भवति' = संपद्यते, 'अतः' = इक्षुकल्पादादरादेः 'क्रमेण' = प्रकर्षपरिपाट्या, 'उपायवतः' = तद्धेतुयुक्तस्य, 'शर्करादिप्रतिमं', शर्करा = सिता, 'आदि' शब्दात् पश्चानुपूर्व्या खण्डादिग्रहः (तत्प्रतिमं) = तत्समं प्रत्येकं प्रकृतसूत्रोपात्तं (श्रद्धादि) = श्रद्धामेधादिगुणपञ्चकम् 'इति:' परिसमाप्तौ। की हानि नहीं है। इससे यह सूचित होता है कि आन्तर गुणों की कई मात्राएँ होती है अत: उच्च मात्रा का गुण न दिखाई देने पर सहसा गुण का सर्वथा अभाव नहीं कह सकते।। इक्षु-रस-गुड आदि के साथ श्रद्धादि की तुलना : अन्य मत से भी देखना चाहें तो श्रद्धादि गुणों में मन्दता तीव्रता आदि का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए इक्षु-रस-गुड-खांड-शक्कर इन पांच जनप्रसिद्ध वस्तुओं के समान चित्तधर्म यानी मन के परिणाम होते हैं, इस वस्तु का प्रतिपादन अन्य दर्शन शास्त्रों में भी मिलता है। यहां उपमान और उपमेय की योजना इस प्रकार है; कायोत्सर्ग में उपादेयभाव यानी कर्तव्यबुद्धि स्वरूप आदर, एवं उसे करने में होती हुई प्रीति आदि इक्षु समान है। इसलिए इन इक्षुसमान आदरादि की जैसे-जैसे उत्तरोत्तर वृद्धि होती है उस क्रम के अनुसार, श्रद्धादि के उपाय में प्रवर्तमान पुरुष के शक्करादि तक के समान श्रद्धा-मेधादि पांच गुण जो कि प्रस्तुत प्रत्येक सूत्र से गृहीत हैं, उनकी भी उत्पत्ति हुई है यह मानना होगा । सारांश यह है कि अगर आन्तर श्रद्धादि हो, तभी बाह्य आदरादि होते हैं; और ये आदरादि एवं श्रद्धा आदि गुण इक्षु आदि के समान होते हैं । इक्षु की इक्षु (गन्ना) अवस्था, रस अवस्था, गुड अवस्था, खांड अवस्था, एवं शक्कर अवस्था, सभी मधुर तो हैं ही, लेकिन क्रमशः वृद्धिंगत माधुर्य वाली होती है इसी प्रकार श्रद्धादि और आदरादि भी अति मन्द से लेकर अति तीव्र तक कई प्रकार के होते हैं। श्रद्धादि बढने से आदरादि बढ़ते हैं; आदरादि की कक्षा देखकर श्रद्धादि की कक्षा का अनुमान होता है । अतएव प्रेक्षावान् यदि कायोत्सर्ग में मन्द भी बाह्य आदरादि करता ही है, तो उसमें आन्तरिक मन्द भी श्रद्धादि है ही, अत: उसका 'सद्धाए'.... इत्यादि सूत्र का उच्चारण श्रद्धारहित यानी मृषा नहीं है। कषायादिकटुता-निवारण पूर्वक शममाधुर्य-संपादन : यह प्रश्न हो सकता है कि दूसरा कोई दृष्टान्त न लेकर इक्षु आदि की उपभा का उपन्यास क्यों किया ? उत्तर यह है कि कटुता का निवारण करके मधुरता का संपादन करना, ऐसी विशेषता में इक्षु आदि के साथ सद्दशता होने से इस उपमा का यहां उपन्यास किया गया है। चित्त में, आत्मा में, क्रोध-मान-माया-लोभ कषाय एवं इन्द्रिय-विकारादि की कटुता है। श्रद्धादि एवं आदरादि से उसका निवारण हो कर उपशमभाव स्वरूप माधुर्य का संपादन होता है। अतः मुख में चिराते आदि की कटुता के निवारक और मधुरता के कारक इक्षु आदि के साथ २८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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