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________________ (ल० - एकान्तपक्षे केषाञ्चित्कार्याणामहेतुकत्वापत्ति :-) एवम् उभयथापि उपादाननिमित्तभेदेन न सर्वथैकस्वभावादेकतोऽनेकफलोदयः केषाञ्चिदहेतुकत्वापत्तेः, एकस्यैकत्रोपयोगेनापरत्राभावात् । (पं० -) प्रकृतसिद्धिमाह 'एवम्' = उक्तनीत्या, 'उभयथापि' = प्रकारद्वयेनापि, तदेवाह 'उपादान - निमित्तभेदेन' = उपादानभेदेन, निमित्तभेदेन च, 'न' = नैव, 'सर्वथैकस्वभावतः' = एकान्तैकस्वभावात्, 'एकतः' = एकस्माद्धेतोः, अनेकफलोदयः', अनेकस्य ऐहिकामुष्मिकरूपस्य, फलस्य = कार्यस्य, (उदय) = प्रसवः, यथा परैः परिकल्प्यते । तेषां हि किल, - "रूपालोकमनस्कारचक्षुलक्षणा रूपविज्ञानजननसामग्री; यथोक्तं 'रूपालोकमनस्कारचक्षुर्य संप्रवर्त्तते। विज्ञानं मणिसूर्यांशुगोस (प्र० ... शु) कृद्भ्य (गोशकृद्रय) इवानलः' इति । अत्र च रूपविज्ञानजनने प्राच्यज्ञानक्षणलक्षणो मनस्कार उपादानहेतुरिति; शेषाश्च रूपादित्रितयलक्षणा निमित्तहेतवः । एवं रूपालोकचक्षुषामपि स्वस्वप्राच्यक्षणाः स्वस्वकार्यजनने उपादानहेतवः, शेषत्रितयं च निमित्तहेतुरिति । एवमेकस्मादेकस्वभावादेव वस्तुनोऽन्येनान्येनोपादानहेतुना अन्यैश्चान्यैश्च निमित्तहेतुभिः सहायैरनेककार्योदयः सर्वसामग्रीषु योज्यत इति । एतन्निषेधानभ्युपगमे बाधकमाह 'केषामि'त्यादि । एकतोऽनेकफलोदये 'केषाञ्चित्' फलानाम्, 'अहेतुकत्वापत्तेः' = निर्हेतुकत्वापत्तेः । कथमित्याह ‘एकस्य' हेतस्वभावस्य. 'एकत्र' फले. 'उपयोगेन' = व्यापारण. 'अपरत्र' फलान्तरे, 'अभावात' उपयोगस्य। पारलौकिक अनेक कार्यों का जन्म नहीं हो सकता है, जैसा कि बौद्ध मानते हैं। उनके मत में 'रूप, प्रकाश, मनस्कार और चक्षु - ये रूपविज्ञान पैदा करने की सामग्री है; क्योंकि कहा गया है कि जिस प्रकार सूर्यकान्तमणि, सूर्यकिरण और गोबर से आग उत्पन्न होती है, वैसे रूप, प्रकाश, मनस्कार एवं चक्षु से विज्ञान उत्पन्न होता है। यहां इस सामग्री के अन्तर्गत 'मनस्कार' नाम है पूर्व कि ज्ञानक्षण का; और उत्तर विज्ञान में वह उपादान कारण है, तथा रूप आदि तीन निमित्त कारण हैं। इस रीति से उन रूप, प्रकाश और चक्षु की भी पूर्व पूर्व रूपक्षण, प्रकाशक्षण, एवं चक्षुक्षण अपने अपने उत्तर रूपादिक्षणात्मक कार्य के प्रति उपादान कारण है, और शेष तीन निमित्त कारण हैं। इस प्रकार एक ही स्वभाव वाली एकेक वस्तु से अन्यान्य उपादान कारणवश एवं अन्यान्य निमित्त कारणों की सहाय पाने पर अनेकविध कार्यों की उत्पत्ति सकल सामग्री के साथ संबद्ध होती है।' बौद्धों की यह मान्यता अयुक्त होने का पूर्व में सिद्ध कर आये हैं। एक ही स्वभाव वाली वस्तु से अनेकविध कार्य, चाहे उपादान एवं निमित्त भिन्न भिन्न हो, पैदा नहीं हो सकते हैं । इस उत्पत्ति का निषेध अगर नहीं स्वीकार्य है, तब बाधक यह उपस्थित होता है कि एक से अनेक कार्यों की उत्पत्ति मानने में तो इनमें से कई कार्य निर्हेतुक ठहरेंगे। क्यों कि कारणभूत उस एक का एक उत्पादक-स्वभाव एक कार्य में उपयुक्त तो हो गया, फिर अन्य कार्य में अब उसका व्यापार नहीं चलेगा। अनेककार्यकरण-एकस्वभाव मानने में दोष : अगर आप कहें कि 'वह एक भी वस्तु-स्वभाव एक ही नहीं किन्तु अनेक कार्य करने की सामर्थ्य रखने वाला मान लेते हैं, फिर उसका व्यापार दूसरे कार्यों के प्रति भी अस्खलित रहने से वे अहेतुक होने की आपत्ति नहीं है;' तब इस मान्यता का अर्थ तो यही हुआ कि आप दूसरे शब्दों से हमारे मत का ही स्वीकार कर रहे हैं। हमारा मत यह है कि प्रत्येक वस्तु अनेक स्वभाव वाली होती है, जब आप मान रहे हैं कि एक वस्तु अनेक २५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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