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(ल० - अनेकान्तपक्षेऽ दूषणम् - ) न चैकानेकस्वभावेऽप्ययमिति, तथादर्शनोपपत्तेः । न हि पितृवासनानिमित्तस्वभावत्वमेव पुत्रवासनानिमित्तस्वभावत्वं, नीलपीतादावपि तद्भावापत्तेरिति परिभावनीयमेतत् ।
(पं० -) अथानेकान्तेऽप्येकान्तपक्षदूषणप्रसङ्गपरिहारायाह 'न च' = नैव 'एकानेकस्वभावेऽपि ' अनेकान्तरूपे, एकान्तरूपे विरोध एवेति 'अपि' शब्दार्थः, 'अयमिति' = व्यवहारविरोध इति । कुत इत्याह 'तथादर्शनोपपत्ते:'- = यथा वस्त्व (प्र० स्व) भ्युपगतं तथादर्शनेन व्यवहारस्य 'उपपत्तेः ' = घटनात् । तामेवाह 'न हि पितृवासनानिमित्तस्वभावत्वमेव', एकानेकस्वभावे वस्तुनि, 'पुत्रवासनानिमित्तस्वभावत्वं', स्वभाववैचित्र्याद्दारिद्र्यात् । विपक्षे बाधामाह 'नीलपीतादावपि' विषये, 'तद्भावापत्तेः ' नीलवासनानिमित्तस्वभावत्वमेव पीतादिवासनानिमित्तस्वभावत्वमित्याद्यापत्तेः 'इति' ।' भावनीयं' = परिभावनीयम् 'एतत्', यदुत 'एकमेव' वस्तु विचित्रवासनावशेन (प्र० वासनाधानेन) विचित्रव्यवहारप्रवृत्तिहेतुरिति ।' न भवतीत्यर्थः; अन्यथा तत एव सर्वव्यवहारसिद्धेः किं जगद्वैचित्र्याभ्युपगमेन ?
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अनेकान्त पक्ष में दूषण नहीं :
प्र होगा कि क्या अनेकान्त पक्ष में एकान्त पक्ष की तरह दूषण प्रसक्त नहीं है ? उत्तर यह है कि अनेकान्त पक्ष में तो वस्तु एकानेकस्वभाव मान्य है, वस्तु द्रव्य रूप से एकस्वभाव, और अनेकधर्म रूप से अनेकस्वभाव होती है। तब एक ही वस्तु से अनेक स्वभाववश अनेक व्यवहार होने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है; और यह वैसे दर्शन से सिद्ध है। वस्तु जैसी स्वीकृत है, दर्शन उसी प्रकार का होता है और इससे व्यवहार की सङ्गति हो जाती है । यह इस प्रकार - वस्तु जब एकानेक स्वभाववाली है तब वस्तु में पितृवासना के प्रति निमित्त होने का जो स्वभाव है वही पुत्रवासना के प्रति निमित्त होने का स्वभाव नहीं किन्तु उससे भिन्न ही स्वभाव है। कारण स्पष्ट है कि स्वभाववैचित्र्य यानी अनेक स्वभावों का उस वस्तु में दारिद्र्य नहीं है, अभाव नहीं है । अभाव यदि होता, तब इसका तो अर्थ यह हुआ कि इसमें एक ही स्वभाव होता, और एक ही स्वभाव से अनेक वासना में निमित्त होने पर फिर नील पीतादि में वही आपत्ति ! अर्थात् नील अपने एक ही स्वभाव से नील वासना की तरह पीतादि वासना में निमित्त क्यों न हो ? नीलवासना का निमित्तभूत स्वभाव वही पीतवासना का भी निमित्तभूत स्वभाव होने की आपत्ति लगेगी। यह चिन्तनीय है; तात्पर्य, एक ही स्वभाव वाली वस्तु सिर्फ विचित्र वासनाओं के बल पर विचित्र व्यवहारों की प्रवृत्ति में कारण नहीं बन सकती है। अगर ऐसा हो तब तो विविध वासनाओं के बल पर ही समस्त व्यवहार होते हैं वैसा सिद्ध होगा ! फिर जगत् का वैचित्र्य क्यों माना जाय ?
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"समस्त जगत घड़ा, वस्त्र, मकान इत्यादि अनेक रूप नहीं किन्तु केवल एक किसी घड़े आदि स्वरूप है, और 'यह घड़ा है', 'यह वस्त्र है', 'यह मकान है', इत्यादि विविध अनुभव एवं व्यवहार तो विविध वासना वश होते हैं" ऐसा मान सकते हैं। अगर विविध व्यवहारों में निमित्त होने के वजह विचित्र जगत यानी जगद्-वैचित्र्य मानना है, तब तो उपादान के अलावा भिन्न भिन्न निमित्त भी कारणभूत होना सिद्ध होता है ।
एकान्तपक्ष में कई कार्य निर्हेतुक होंगे:
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इससे प्रस्तुत में यह सिद्ध होता है कि उक्त रीति अनुसार दोनों प्रकार अर्थात् उपादान भी भिन्न भिन्न और निमित्त भी भिन्न भिन्न होने के कारण, एक ही निमित्त से यानी एकान्त एकस्वभाव वाले हेतु से ऐहिक -
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