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________________ ३२. सिव-मयल-मरुअ-मणंत-मक्खय-मव्वाबाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं (शिवमचलमरूज - मनन्तमक्षयमव्याबाधमपुनरावृत्ति-सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेभ्यः) (ल० - 'आत्मविभुत्व'मतखण्डनम् - ) एते च सर्वेऽपि सर्वगतात्मवादिभिर्द्रव्यादिवादिभिस्तत्त्वेन सदा लोकान्तशिवादिस्थानस्था एवेष्यन्ते, 'विभुर्नित्य आत्मे 'तिवचनात् । एतद् - व्यपोहायाह शिवमचलमरुजमनन्तमक्षयमव्याबाधमपुनरावृत्तिसिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेभ्यः' । ___(पं० -) 'द्रव्यादिवादिभिः' इति = द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायवादिभिः, वैशेषिकैरित्यर्थः । 'विभु' रिति = सर्वाकाशव्यापी । ३२ सिवमयलमरुअमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपताणं ( शिव, अचल, अरोग, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति, सिद्धि-गति नामक स्थान को संप्राप्त के प्रति) आत्मा को सर्वव्यापी मानने वाला वैशेषिक दर्शन : 'ये सभी परमात्मा लोक के अन्त भाग स्वरूप जो शिव, अचल, इत्यादि स्थान है, उसमें हमेशा रहते ही हैं; अर्थात् मोक्ष होने के पहले भी लोकान्त भाग में अवस्थित हैं,' - ऐसा वैशेषिक दर्शन वाले मानते हैं। वे आत्मद्रव्य को सर्वव्यापी मानते हैं। वे इन द्रव्यादि षट् पदार्थवादी है, - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय । इनमें द्रव्य नौ हैं, - पृथ्वी, जल तेज, वायु, मन, ये पांच मूर्त हैं; और आकाश, काल दिशा और आत्मा, ये चार अमूर्त हैं, विभु यानी सर्वव्यापी, सर्वगत है। इस दर्शन का वचन है 'विभुनित्य आत्मा' आत्मा विभु और नित्य है। विभु का अर्थ है परम महत् परिमाण वाला, अर्थात् सर्वगत, सर्वत्र व्यापी । ऐसा मानने में वे यह हेतु बतलाते हैं कि यदि आत्मा मध्यम परिणाम वाली होती तो अवयवयुक्त होती और अमूर्त होने के नाते अवयव संभवित नहीं है। अगर वह अणु परिणाम वाली होती तो वह और उसके गुण अप्रत्यक्ष रहने से में सुखी हूँ दुःखी हूँ' इत्यादि अनुभव नहीं हो सकता । अणु के गुण अतीन्द्रिय होते हैं, प्रत्यक्षयोग्य नहीं । एवं अणु या मध्यम परिणाम वाली होने में तो दूर देश में उसका संबन्ध न होने से उसके अदृष्ट (भाग्य) गुण का भी असंबन्ध रहने से, उसके द्वारा भोग में आने वाले पदार्थों की वहां उत्पत्ति नहीं हो सकती। क्यों कि वस्तु मात्र की उत्पत्ति में आत्मा का अदृष्ट कारण है तो वह कारण वहां उत्पत्ति देश में संबद्ध होना चाहिए। इस प्रकार जब आत्मा मूलतः विभु है, व्यापक है, तो मोक्ष होने के बाद लोकान्त स्थान को प्राप्त करती है वैसा नहीं माना जा सकता। वह तो लोकान्तव्यापी पहले से है ही। एवं आत्मा सदा नित्य भी है।" वैशेषिक-'आत्मा विभु'-मत के खण्डनार्थ: इस मत के निराकरणार्थ यहां सूत्रकार अर्हत् परमात्मा की एक और स्तुति करते हैं 'सिव - ममय....ठाणं संपत्ताणं' । अर्थात् शिव, अचल, अरोग, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति ऐसे सिद्धिगति नामक स्थान को संप्राप्त के प्रति मेरा नमस्कार हो। २२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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