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________________ विज्ञानवादी बौद्ध जो इस प्रकार विषयाकार का प्रतिसंक्रम आदि न हो सकने के कारण विषयग्राही ज्ञान में प्रतिबिम्बाकारता का असंभव स्थापित करते हैं, अर्थात् 'बाह्य विषयप्रतिबिम्बाकार ज्ञान उपपन्न नही हो सकता है किन्तु बाह्याकारशून्य ही वैसा वैसा सत्स्वभावमात्र रूप में ही प्रकाशक ज्ञान स्फुरित होता है,' - ऐसा जो वे कहते हैं, यह विज्ञानवादी का सभी उपपादन निरर्थक हैं; क्योंकि हम ज्ञान में इस प्रकार की प्रतिबिम्बाकारता मानते ही नहीं हैं। हमें तो आत्मा में और इसके द्वारा ज्ञान में प्रतिबिम्बाकारता विषयग्रहणपरिणाम स्वरूप स्वीकृत है। इससे विषय के आकार का ज्ञान में संक्रमित हो विषय से चल जाने की आपत्ति भी नहीं है। विषयके आकार का संक्रमण हमें मान्य ही नहीं है फिर आपत्ति कैसी? हमें तो, आत्मा में जो कुछ ज्ञानादि उत्पन्न होता है, यह परिणामी आत्मा के एक प्रकार के परिणाम रूप से उत्पन्न होना मान्य है, और यह ग्रहणपरिणाम भिन्न भिन्न विषय के अनुसंधान में भिन्न भिन्न होता है, तथा वही प्रतिपरिणाम विशिष्टता, यह प्रतिबिम्बाकारता है। मुक्तात्मा के भी सर्व विषयों को ज्ञान में ऐसा विशिष्ट परिणाम है; और वही ज्ञान का आकार है, किन्तु विषयाकार का संक्रमण यह आकार नहीं। साकार एवं निराकार दोनों की सिद्धि जैन मत में ही : ___आत्मा में सुखदुःख परिणाम, कर्मबन्ध-उदयादि परिणाम, क्षय-क्षयोपशमादिपरिणाम, ग्रहणपरिणाम इत्यादि कई प्रकार के परिणाम उत्पन्न होते हैं। उनमें से ग्रहणपरिणाम यही ज्ञेय विषय का आकार है। तब चाहे ज्ञान 'सत्' इत्यादि सामान्य रूप से करें या 'जीव, पुद्गल' इत्यादि विशेष रूप से करें, किन्तु उन सामान्य या विशेषरूप के अनुसार ग्रहणपरिणाम उत्पन्न होगा । वहां विशेषग्रहणपरिणाम वाला बोध (चैतन्यस्फुरण) यह साकार उपयोग यानी 'ज्ञान' कहलाएगा, और सामान्यग्रहणपरिणाम वाला बोध यह निराकार उपयोग यानी 'दर्शन' कहलाएगा सो जैनदर्शन ही साकार-निराकार का यह विवेक दिखला सकता है कि निराकार दर्शन भी आकारशून्य नहीं है, और साकार ज्ञान भी किसी विषयाकारप्रतिबिम्बसंक्रम वाला नहीं हैं, लेकिन दर्शन विशेषग्रहणपरिणामशून्य होनेसे निराकार कहलाता है; और ज्ञान विषय के विशेषधर्म-ग्रहणानुकूल परिणाम वाला होने से साकार कहा जाता है। मुक्तात्मा में भी समय समय के अन्तर से विश्व के समस्त विशेष एवं समस्त सामान्य का ग्रहणपरिणाम उत्पन्न होता रहेता है और उसे यथाक्रम केवलज्ञान तथा केवलदर्शन कहते हैं। इस प्रकार मोक्ष में सर्वज्ञता-सर्वदर्शिता सिद्ध होती है ।। ३१ ।। RAMOUS IWOOD INDOO VOOOD UOUOAD Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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