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________________ होती है, तो उसमें अगर ज्ञान भी हो तो वह ज्ञान भी उसके धर्मरूप होने से अमूर्त अर्थात् रूप-आकृति आदि से शून्य ही होगा । अर्थात् विषयाकारता से भी रहित ही होगा ! और अमूर्त में कोई रूपादि तो है नहीं; तब विषयाकारता यानी विषय की समान स्वभावता भी कैसे संगत हो? तो तत्त्वदृष्टि से यही आता है कि फलतः मुक्तात्मा में साकार ज्ञान कहने का अर्थ,-उसमें ज्ञान है ही नहीं,-यह होता है। कारण, 'जिससे अपने आकारवाला विषय जाना जाए वह ज्ञान है,' ऐसी व्युत्पत्ति के अनुसार मोक्ष में अगर ज्ञान में कारणभूत आकार नहीं तो वह ज्ञान ही नहीं । तो मुक्तात्मा ज्ञानरहित है यह सिद्ध होता है। और यही बात ठीक है, चूं कि आत्मा तो बिलकुल तरङ्ग-शून्य महासागर सी है; तरङ्ग तो वृत्ति रूप होती हैं, विषयाकार ज्ञानादि की प्रवृत्तिरूप होती हैं, और वे वृत्तियाँ प्रकृत्ति के विकारभूत बुद्धि-अहङ्कारादि रूप पवन के सम्बन्ध से हो सकती हैं। मुक्तात्मा को बुद्धि आदि पवन का सम्बन्ध ही न होने से तरङ्गतुल्य ज्ञान वृत्तियां उसमें आरोपित नहीं हो सकती हैं। इसलिए मुक्तावस्था में कोई बुद्धितत्त्व की वृत्ति का योग न होने से सर्वज्ञता असङ्गत ही है। और यदि निराकार विज्ञानसे सर्वज्ञता आप मान लें तब भी इसका उपपादन नहीं किया जा सकता। क्यों कि निराकार विज्ञान से अगर विषयबोध होता तो उसमें कोई नियम नहीं रहेगा कि अमुक विषय का ज्ञान इस प्रकार का, और अमुक का दूसरे प्रकार का । ज्ञानमात्र निराकार होने से सब ज्ञान समान ही होगा, किन्तु साकारता की तरह अलग अलग विशेषता वाला नहीं । तो अमुक विज्ञान अमुक ही विषयका है, उसका पता कैसे चले? सारांश, निराकार विज्ञान कुछ उपयोग का नहीं, और साकार विज्ञान मोक्षावस्था में नहीं हो सकता, तब वहां सर्वज्ञता कैसे उत्पन्न हो सके ? जैनमत से मोक्ष में ज्ञान का उपपादन : उ० - यह कथन युक्तियुक्त नहीं है; क्यों कि दरअसल आकार क्या चीज़ है उसकी समझ नहीं है। ज्ञान में आकार कोई मूर्तता, या रूप, या आकृति, या विषय का तुल्य स्वभाव नहीं ! किन्तु आत्मा में उत्पन्न होने वाला, विषय का, तथाविध ग्रहण-परिणाम यही आकारवस्तु है। जीव में भिन्न भिन्न विषय के ज्ञान भेदाभेद संबन्ध से (कथंचित अभेदभावतः) उत्पन्न होते हैं; वहां वैसे वैसे ज्ञान में वह ज्ञाता परिणत होता है, और ज्ञान में यथाविषय वैसा वैसा ग्राहक परिणाम बन आता है। ज्ञेय विषय की भिन्नता के अनुसार जीवमें ग्राहक परिणाम भी तथाविध ही होगा, यह सहज है। इसी विषयग्राहकरूप से ज्ञान का जो परिणाम बनता है वह आकार है। ऐसा परिणाम तो मूर्त में ही क्या, अमूर्त में भी उत्पन्न हो सकता है। ज्ञान जब ग्रहणस्वभाव ही है तब उस उस विषय के मुताबिक ग्रहणपरिणाम वाला होगा ही; इसमें कोई बाधक नहीं हो सकता। और अनेक विषयों को एकसाथ ले कर जब ज्ञान होता है, तब उस समुदाय के अनुसार विशिष्ट ग्रहण-परिणाम होना संभवित है। स्वानुभवसिद्ध है कि विविध वर्णवाली कंबल या अन्य वस्तु एक ही साथ अनेक वर्णमय ज्ञात होती है। तो क्या यहां ज्ञान अनेक विषयाकार नहीं हुआ? क्या ज्ञान में ये विविध वर्णाकार बाह्य द्रव्य के वर्ण, रूप, गुण की भांति वर्ण, रूप, गुण, उत्पन्न हुए? नहीं ; अगर ऐसा स्वीकार करेंगे तो ज्ञान भी उसी प्रकार.रूपी द्रव्य स्वरूप हो जायगा ! मोदकादिरस का ज्ञान भी, मधुर रसाकार होने से, रस वाला ही बनेगा, तो ज्ञान मात्र से रसास्वाद या तृप्ति होने लगेगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है, इससे सूचित होता है कि आकार यह विषयस्वभाव नहीं किन्तु ग्रहण-परिणाम है। ज्ञान में प्रतिबिम्बसंक्रम रूप आकार मानने में आपत्ति : यहां पंजिकाकार सांख्यादि से पूछते हैं कि ज्ञान आकारवाला है तो आकार क्या वस्तु है? अगर आकार रूप से आपको ज्ञेयवस्तु के प्रतिबिम्ब का संक्रमण अभिप्रेत है, तो इसमें अनेक दोषों का प्रसङ्ग है, क्यों कि - २१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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