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.. २४. धम्मवरचाउरन्तचक्कवट्टीणं (धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिभ्यः)
(ल०-धर्मों वरचक्रं कथम् ? ) तथा, 'धम्मवरचाउरन्तचक्कवट्टीणं'। धर्मोऽधिकृत एव । स एव वरं प्रधानं, चतुरन्तहेतुत्वात् चतुरन्तं, चक्रमिव चक्रं, तेन वर्तितुं शीलं येषां ते तथाविधाः । इदमत्र हृदयम्, -यथोदितधर्म एव वरं प्रधानं, चक्रवर्तिचक्रापेक्षया लोकद्वयोपकारित्वेन, कपिलादिप्रणीतधर्मचक्रापेक्षया वा त्रिकोटिपरिशुद्धतया ।
(पं०-) 'त्रिकोटिपरिशुद्धतये 'ति, तिसृभिरादिमध्यान्ताविसंवादिलक्षणाभिः कषच्छेदतापरूपाभिर्वा 'कोटिभिः' = विभागैः, 'परिशुद्धो' = निर्दोषो यः स तथा तद्भावस्तत्ता तया । कषादिलक्षणं चेदम्-. पाणवहाइयाणं पावट्ठाणाणं जो उ पडिसेहो । झाणज्झयणाईणं, जो उ विही एस धम्मकसो ॥१॥ बज्झाणुट्ठाणाणं जेण न बाहिज्जए तयं नियमा । संभवइ य परिसुद्धं सो पुण धम्ममि छेओ त्ति ॥२॥ जीवाइभाववाओ, बंधाइपसाहगो इहं तावो । एएहिं सुपरिसुद्धो धम्मो धम्मत्तणमुवेइ ॥ ३ ॥
२४. धम्मवरचाउरन्तचक्कवट्टीणं ( धर्म के श्रेष्ठ चतुरन्त चक्रवर्ती को) धर्मचक्र श्रेष्ठ कैसे ? -
अब 'धम्मवरचाउरन्तचक्कवट्टीणं' पद की व्याख्या। यहां भी धर्म कर के चारित्रधर्म ही प्रस्तुत है। वही प्रधान चाउरन्त चक्र है; चतुरन्त इसलिए कि 'चतुः' यानी चार गतियोंका, अथवा दानादि चार से संसारका, अन्त करने में कारण है। ऐसे धर्मचक्र से रहने का स्वभाव जिनका है वे धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्ती कहलाते हैं। इसका तात्पर्य यह है;
(१)धर्म उभयलोकहितकारीः चक्र इस लोक में उपकारकः- पूर्वोक्त चारित्रधर्म ही इस लोक एवं परलोक दोनोमें उपकारक होने की वजह सम्राट चक्रवर्ती राजा के चक्र की अपेक्षा प्रधान चक्र है। चक्रवर्ती का चक्ररत्न नामक शस्त्र तो मात्र इस लोक में अन्य समस्त राजाओं का निग्रह कर चक्रवर्ती को सम्राट बनाने का उपकार करता है; जब कि चारित्र इस लोक में दुःख के मूल निमित्तभूत वासना-विकारो का उपशमन, एवं महासुख के परम साधनभूत निस्पृहता का उद्भावन कर यहां भी महान उपकारक होता है, और परलोक में भी स्वर्ग-मोक्ष का संपादन कर के अत्यन्त उपकारक होता है।
अर्हद्-धर्म त्रिकोटिपरिशुद्ध है, अन्य धर्म नहीं :- (२) और भी बात है । अर्हत्परमात्मा द्वारा उपदिष्ट धर्म कपिलादि दर्शनप्रणेताओं द्वारा उपदिष्ट धर्मचक्र की अपेक्षा प्रधान है, क्यों कि अर्हद्-धर्म त्रिकोटिपरिशुद्ध है। त्रिकोटिपरिशुद्ध के दो अर्थ है, - एक, त्रिकोटी में यानी तीन विभाग - आदि, मध्य और अन्त के भाग में कहीं भी विसंवाद यानी परस्पर विरोध नहीं ऐसा त्रिकोटि-परिशुद्ध, तात्पर्य आमूलचूल और सभी ग्रन्थो में बिलकुल संगत, परस्पर अबाधक एवं संगत पदार्थो व आचारों के निरूपणवाला धर्म । कपिलादि के धर्म एसा त्रिकोटिपरिशुद्ध नहीं है। 'त्रिकोटी-परिशुद्ध'का दूसरा अर्थ है, त्रिविध परीक्षा यानी कष, छेद और ताप की परीक्षा में उत्तीर्ण । कष आदिका स्वरूप यह है :- (१) जिस धर्म में जीवहिंसा, असत्य वगैरह पापस्थानको का निषेध, और ध्यानस्वाध्याय-तप आदिका विधान हो वह कष परीक्षा में उत्तीर्ण हैं। (२) जिस धर्मके बाह्य आचार-अनुष्ठान ऐसे हो कि जिनके द्वारा उन विधि-निषेधों का बाध न होता हो वह धर्म छेदपरीक्षाशुद्ध है। और (३) जिस धर्म में पूर्वोक्त
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