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(ल०-) धर्मप्रवर्तनेन कथं सारथित्वम्:- ) तद्यथा, - सम्यक्प्रवर्त्तनयोगेन परिपाकापेक्षणात्, प्रवर्त्तकज्ञानसिद्धेः, अपुनर्बन्धकत्वात्, प्रकृत्याभिमुख्योपपत्तेः ।
(पं० ) तदेव 'तद्यथा' इत्यादिना भावयति, तत् सारथित्वं यथा भवति तथा प्रतिपाद्यत इत्यर्थः । 'सम्यक्प्रवर्त्तनयोगेन' अवन्ध्यमूलारम्भव्यापारेण, धर्म्मसारथित्वमिति संटङ्कः । एषोऽपि कुत इत्याह ‘परिपाकापेक्षणात्,' परिपाकस्य प्रकर्षपर्यन्तलक्षणस्य अपेक्षणात् साध्यत्वेनाश्रयणात् । एतदपि कुत इत्याह 'प्रवर्त्तकज्ञानसिद्धेः' अर्थित्वगर्भप्रवृत्तिफलस्य ज्ञानस्य भावात्, प्रदर्शकाद्यन्यज्ञानेन प्रवृत्तेरयोगात् । साप कथमित्याह 'अपुनर्बन्धकत्वात्' 'पापं न तीव्रभावात्करोती' त्यादिलक्षणोऽपुनर्बन्धकस्तद्भावात् । तदपि कथमित्याह 'प्रकृत्याभिमुख्योपपत्तेः' प्रकृत्या तथाभव्यत्वपरिपाकेन स्वभावभूतया, (आभिमुख्योपपत्तेः ) धर्मं प्रति प्रशंसादिनानुकूलभावघटनात् ।
(ल०-सम्यक्प्रवर्तनहेतव:- ) तथा गाम्भीर्ययोगात्, साधुसहकारिप्राप्तेः, अनुबन्धप्रधानत्वाद्, अतीचारभीरुत्वापत्तेः ।
(पं०) 'तथा' शब्दः सम्यक्प्रवर्तनयोगस्यैव प्रथमहेतोः सिद्धये परस्परापेक्षवक्ष्यमाणहेत्वन्तरचतुष्टयसमुच्चयार्थः I ततो गाम्भीर्य योगा'च्च सम्यक्प्रवर्त्तनयोगो, गाम्भीर्यं चास्याचिन्त्यत्रिभुवनातिशायिकल्याणहेतुशक्तिसंपन्नता । एतदपि कुत इत्याह 'साधुसहकारिप्राप्तेः ' फलाव्यभिचारिचारुगुर्वादिसहकारिलाभात् । इयमपि कथमित्याह 'अनुबन्धप्रधानत्वात् ' निरनुबन्धस्योक्तसहकारिप्राप्त्यभावात् । तदपि कथमित्याह - ' अतिचारभीरुत्वोपपत्तेः' अतिचारोपहतस्यानुबन्धाभावात् ।
अभिमुख हुए हैं, अर्थात् धर्मप्रशंसादि द्वारा धर्म के प्रति सहज रूप से अनुकूल भाव वाले हुए हैं । सारांश, अर्हत्प्रभु के तथाभव्यत्व के प्रभाव से सहज धर्माभिमुखता, इस से अनुपर्बन्धक-गुणदशा, इससे उत्कटेच्छापूर्वक धर्मप्रवृत्ति करानेवाला ठोस ज्ञान, इस वश धर्मपराकाष्ठा तक की तीव्र लिप्सा पूर्वक अमोघ धर्मप्रवृत्ति, अरहंत में सिद्ध है, अतः वे धर्मसारथि हैं।
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सम्यक्प्रवर्तन के परस्पर सापेक्ष ४ हेतु :
यहां मूल ग्रन्थ में ‘तथा' शब्द दिया है, वह सम्यक् प्रवर्तनयोग स्वरूप पहले हेतु की सिद्धि के लिए अब कहे जाने वाले चार और हेतुओं के संग्रहार्थ है । वे ४ हेतु भी परस्पर सापेक्ष है, अर्थात् प्रथम हेतु द्वितीय हेतु की अपेक्षा, और द्वितीय तृतीय की, एवं तृतीय हेतु चतुर्थ की अपेक्षा रखता है । इसलिए यह फलित हुआ कि प्रभु में सारथिपन सिद्ध करनेवाला सम्यक्प्रवर्तनयोग गांभीर्य गुण से सिद्ध है; और गांभीर्य साधुसहकारि लाभ से सिद्ध..... इस प्रकार ।
प्र०-'गांभीर्य', 'साधु सहकारी', 'अनुबन्ध', इत्यादि क्या है ?
उ०- 'गांभीर्य' वह अचिन्त्य और तीन लोक में उच्चतम विशिष्ट ऐसी कल्याण करने की शक्ति स्वरूप है । दृष्टान्त से भगवान गणधरों को मात्र 'उप्पन्ने इ वा ....... . इत्यादि तीन पद दे कर उनमें समस्त द्वादशांगी श्रुत का ज्ञान प्रकट कर देते हैं। इस शक्ति का ख्याल हमे नहीं आ सकता, अतः वह अचिन्त्य शक्ति है; और जगत में अन्य किसी के पास ऐसी शक्ति न होने से कहा जा सकता है कि वह त्रिभुवन में उच्चत्तम है। ऐसी शक्तिसंपन्नता रूप
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