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________________ २३. धम्मसारहीणं ( धर्मसारथिभ्यः) (ल०-धर्मसारथित्वहेतवः-) तथा, 'धम्मसारहीणं । इहापि धर्मऽधिकृत एव, तस्य स्वपरापेक्षया सम्यक्प्रवर्तन-पालन-दमनयोगतः सारथित्वम् । (पं०-) धर्प ० ४ । 'इहापी'त्यादि = इहापि, न केवलं पूर्वसूत्रे । 'धर्मो', अधिकृत एव' = चारित्रधर्म इत्यर्थः । तस्य,' रथस्येव, स्वपरापेक्षया' = स्वस्मिन्परस्मिश्चेत्यर्थः । प्रवर्तन-पालन-दमनयोगतः' हेतुत्रितयतया साधयिष्यमाणात्, 'सारथित्वं' = रथप्रवर्तकत्वम् । २३. धम्मसारहीणं (धर्म-सारथि के प्रतिः) धर्मसारथिता के ३ हेतु : अब 'धम्मसारहीणं' पदकी व्याख्या, -धर्मसारथि के प्रति मेरा नमस्कार हो । मात्र पूर्व सूत्र में नहीं किन्तु इस सूत्र में भी धर्म कर के चारित्र धर्म ही ग्राह्य है। रथ के समान उस चारित्र धर्म का स्व-पर में सम्यक् प्रवर्तन, पालन एवं दमन करने से भगवान में सारथिपन अर्थात् रथप्रवर्तकता है। तो यह सारथिपन प्रवर्तन, पालन एवं दमन, इन तीनों हेतुओं से सिद्ध किये जाने वाले है। प्रथमहेतु 'सम्यक्प्रवर्तन' से सारथित्व कैसे ? : अरहंत परमात्मा में ऐसा धर्मसारथिपन किस कारण से है इसका अब विचार किया जाता है। धर्मसारथिपन सम्यक् प्रवर्तन के योग से होता है। धर्म का सम्यक् प्रवर्तन यही है कि परमात्माने अपनी आत्मा में धर्म के मूल प्रारम्भ की प्रवृत्ति ऐसी सफल की है, जिससे वह धर्म उत्तरोत्तर बढ रहा है; और अन्यों की आत्मा में भी परमात्मा के द्वारा प्रवर्तित किये गए अपुनर्बन्धकता के धर्म से उनका संसारअंत एक पुद्गलपरावर्त के भीतर, और सम्यक्त्व धर्म से भवसमाप्ति अर्ध पदगलपरावर्त के भीतर निश्चित हो चुकी है। ऐसा धर्मप्रवर्तन स्व-पर में कराने से उन में धर्म का सारथिपन है। धर्म का सम्यक्प्रवर्तन होने में कारण यह है कि धर्म को पारिपाक यानी पराकाष्ठा पर्यन्त पहुंचाना, इसका साध्यरूप से यानी लक्ष्यरूप से आदर किया गया है। जिस प्रकार सवारी में यदि अश्वका फलवत् प्रवर्तन किया जाए इतना ही नहीं, किन्तु अंतिम लक्ष्य तक पहुंचाने का ध्यान रखा जाए तभी वह सम्यक् प्रवर्तन कहा जा सकता है, वैसे यहां भी अरहंत प्रभुने धर्म की रुपरेखा मोक्षरूप या मोक्षदायी सर्वोत्कृष्ट धर्म स्वरूप अंतिम लक्ष्य तक की निश्चित की है। प्रारम्भ से ही लेकर उत्तरोत्तर कैसा कैसा विकास शक्य और संभवित है और कैसे एवं क्रमशः किस किस स्वरूप के धर्म का आलंबन कर पराकाष्ठा में वितरागभाव के धर्म तक की सिद्धि हो,- इन सब का यथार्थ विस्तार दिखलाया, एवं धर्म का वास्तविक पूर्ण परिपाक लक्ष्यभूत बनाया है। इस में कारण यह है कि उनके वहां धर्म के अथित्व से युक्त प्रवृत्ति करा सके ऐसा ठोस ज्ञान सिद्ध है। नियत रूप का प्रवृत्ति न दे सके ऐसे दूसरे केवल प्रदर्शक या आडंबरी ज्ञान आदि से क्या? प्रदर्शकादि अन्य ज्ञान से प्रवृत्ति नहीं हो सकती । ऐसा ठोस ज्ञान सिद्ध होने में कारण यह है कि वहां अपुनर्बन्धकभाव का मजबूत पाया लगा है। 'तीव्र भाव से पाप न करे, घोर संसार के प्रति आदर न रखें,'... इत्यादि अपुनर्बन्धक के लक्षण कह आयें हैं । पहले हृदय ऐसा अपुनर्बन्धक बना हो, तभी अंतिम लक्ष्यवाली प्रवृत्ति का कारक ज्ञान हो सकता है। अपुनर्बन्धक भाव भी इसलिए कि तथाभव्यत्व का परिपाक होने की वजह अब स्वभाविक प्रकृति से धर्म के प्रति सार १७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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