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________________ १८ सरणदयाणं (शरणदेभ्यः) (ल०-शरणं तत्त्वचिन्ता, विविदिषा) तथा 'सरणदयाणं' इह शरणं भयार्त्तत्राणं, तच्च संसारकान्तारगतानां अतिप्रबलरागादिपीडितानां दुःखपरम्परासंक्लेशविक्षोभतः समास्वा (श्वा)सनस्थानकल्पं, तत्त्वचिन्तारूपमध्यवसानं, विविदिषेत्यर्थः । (पं० ) दुःखपरम्पराक्लेशविक्षोभतः इति, दुःखपरम्परायाः नरकादिभवरूपायाः, संक्लेशस्य च क्रोधादिलक्षणस्य, विक्षोभतः = स्वरूपहासलक्षणचलनादिति । १८ सरणदयाणं (तत्त्वजिज्ञासारूप शरण देने वालों को) 'शरण' का अर्थ विविदिषा : अब 'सरणदयाणं' पद से भगवान की शरणदाता के रूप में स्तुति की जाती है। यहां 'शरण' का अर्थ भयपीड़ीतो का रक्षण होता है। प्र०- तब तो भगवान के द्वारा सबों की भयपीडा का आमूल निवारण क्यों नहीं होता? उ०- रक्षण का यह अर्थ नहीं है। किन्तु जीव बेचारे जो संसार-अटवी में फंसे हुए हैं ओर अति प्रबल राग-द्वेष-अज्ञान-काम-क्रोध-लोभ आदि से पिड़ित है, भगवान उनके नरकादि भव स्वरूप दुःख एवं क्रोधादि रूप संक्लेश के स्वरूप का हास करते हुए, आश्वासन के स्थान-तुल्य होते हैं; यह रक्षण का अर्थ है । अर्थात् भगवान एक ऐसा आश्वासन-स्थान देते है कि जिससे नरकादि दुःख कर्मजन्य होने के कारण अल्प काल रहने पर भी, उस दुःख के चित्तोद्वेगकारी स्वरूप का हास हो जाता है; एवं क्रोध-लोभादि के संक्लेश की उग्रता कम हो जाती है। प्र०-ऐसे आश्वासनस्थान समान रक्षण यानी शरण क्या चीज है? उ०- वह है तत्त्व की चिन्ता स्वरूप संकल्प, जिसे विविदिषा यानी तत्त्वजिज्ञासा कहते है। इसीसे ऐसा वास्तविक तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है कि जिस में दुःख और रागादि-संक्लेश नगण्य हो जाते है। अतः विविदिषा ही सच्चा शरण है-रक्षण है। प्रज्ञा के आठ गुण : विवदिषा जो तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के संकल्प रूपं है, उसके होने पर ही तत्त्व सम्बन्धी शुश्रूषादि आठ प्रज्ञा-गुण उत्पन्न होते हैं । वे हैं शुश्रूषा-श्रवण-ग्रहण-धारण-विज्ञान-ऊह-अपोह और तत्त्वाभिनिवेश । इन क्रमिक आठ गुणों के द्वारा ही तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है; लेकिन इनका मूल है तत्त्वविविदिषा। अब यहां शुश्रूषादिका अर्थ दिखलाते हैं। (१)शुश्रूषा का अर्थ तत्त्वश्रवण की अभिलाषा है। तत्त्व की जिज्ञासा होने पर पहले तत्त्व सूनने की तत्परता होती है, वह है शुश्रूषा । बाद में (२) तत्त्ववेत्ता के समागम को प्राप्त कर उनके पास विनयादिपूर्वक शास्त्र का श्रवण किया जाता है, कहे जाते तत्त्व पर क्षोत्रेन्द्रिय का लक्ष केन्द्रित किया जाता है। (३) तीसरे गुण 'ग्रहण' में सूने हुए तत्त्वशास्त्र के अर्थ मात्र गृहीत किया जाते है; भावार्थ आदि आगे चिन्तनीय हैं। क्योंकि यदि अब से भावार्थ तात्पयार्थ आदि में पडे तो शास्त्र-वचनों का मूल अर्थ छूट जाए । (४) ग्रहण के अनन्तर धारणा' गुण यानी अविस्मरण आवश्यक है। शास्त्रार्थ गृहीत तो किये, लेकिन यदि इनको मनमें १४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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