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________________ (ल०-१४ पूर्विषट्रस्थान) अस्ति च चतुर्दशपूर्वविदामपि स्वस्थाने महान् दर्शनभेदः, तेषामपि परस्परं षट्स्थानश्रवणात् । (पं०-) अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह अस्ति' = वर्तते, 'च'कारः पूर्वोक्तार्थभावनार्थः, 'चतुर्दपूर्वविदामपि' आस्तां तदितरेषामिति 'अपि' शब्दार्थः 'स्वस्थाने' चतुर्द्धशपूर्वलब्धिलक्षणो, 'महान्' = बृहत्, ‘दर्शनभेदो' = दृश्यप्रतीतिविशेषः, कुत इत्याह तेषामपि' = चतुर्दशपूर्वविदामपि, किं पुनरन्येषामसकलश्रुतग्रन्थानामिति 'अपि' शब्दार्थः, ‘परस्परम्' = अन्योन्यं, 'षट्स्थानश्रवणात्' = षण्णां वृद्धिस्थानानां हानिस्थानानां चानन्तभागासंख्येयभागसंख्येयभागसंख्येयगुणासंख्येयगुणानन्तगुणलक्षणानां शास्त्र उपलम्भात् । हुई है :- १. 'उप्पन्ने इ वा' अर्थात् सत् मात्र उत्पन्न होता है; २. 'विगमे इवा' अर्थात् सत् मात्र का नाश होता है; ३. 'धुवे इ वा' सत् मात्र ध्रुव होता है । इस त्रिपदी के उपन्यास से मात्र गणधर जीवों में ही उत्कृष्ट श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम यानी उत्कृष्ट प्रकाश, जिसे प्रद्योत कहते हैं, वह निष्पन्न होता है। अर्हत् प्रभु केवल उन्हीं की अपेक्षा प्रद्योतकरण के स्वभाववाले होना सङ्गत हो सकता है; क्यों कि प्रभु की प्रद्योतक शक्ति का संपूर्णता से उपयोग वहां ही हो सकता है। १४ पूर्वधर में षट्स्थान : प्र०-गणधर देवों की तरह और चौदह 'पूर्व' नाम के शास्त्रज्ञान की लब्धिवालों को भी उच्च कोटि का प्रकाश तो होता है, तो उनको भी यहां लोक शब्द से ले कर उनको भी प्रद्योत करनेवाले अर्हत् प्रभु है ऐसा कहा जा सकता है न? प्रभु केवल गणधर जीवों के लिए ही प्रद्योतकर हैं, ऐसा क्यों? उ०-- 'लोक' शब्द से और तो क्या किन्तु अन्य चौद पूर्वधर भी नहीं लिए जा सकते । क्यों कि उनमें भी अपनी अपनी चौद पूर्वो की ज्ञानलब्धि में बड़ा दर्शनभेद होता है; अर्थात् चौद पूर्वियों के पूर्वो से वक्तव्य पदार्थो के ज्ञान में बहुत बड़ा अंतर होता है। कारण, ऐसे तो वे सभी समस्त १४ पूर्वो का सूत्र और अर्थ से ज्ञान रखने वाले होते हैं, परन्तु शास्त्रों से पता चलता है कि दूसरे अपूर्ण श्रुतज्ञान वालों की तो क्या बात, किंतु संपूर्ण चौदह पूर्वो के ज्ञानवाले भी परस्पर की अपेक्षा से षट्स्थानवाले होते है, वे 'षट्स्थानपतित' अर्थात् बुद्धि और हानि विषयक षट्स्थान में रहे हुए कहलाते हैं । अर्थात् वे न्यून या अधिक ज्ञानपर्यायवाले होते है। शास्त्रों में बोध आदि की वृद्धि और हानि, इन प्रत्येक के षट्स्थान इस प्रकार मिलते हैं :१. अनंतभागवृद्ध, २ असंख्येयभागवृद्ध, ३ संख्येयभागवृद्ध, ४ संख्येयगुणवृद्ध, ५ असंख्येयगुणवृद्ध, ६ अनंतगुणवृद्ध; इस प्रकार १ अनंतभागहीन, २ असंख्येयभागहीन... यावत् ६ अनंतगुणहीन । इसका तात्पर्य यह है कि सभी चौदह पूर्वी महर्षियों को चौदह पूर्वो के सूत्र और अर्थो का ज्ञान होने पर भी उसके पदार्थो के ज्ञात पर्याय इन छ: में से एक दूसरे से किसी प्रकार हीन या अधिक होते हैं। कोई एक चौदह पूर्वी के ज्ञात पर्याय दूसरे चौदह पूर्वी के ज्ञात पर्याय की अपेक्षा अनंतभाग अधिक या असंख्यभाग अधिक... इत्यादि हो सकते हैं । इस नाप को उदाहरणसे देखें । असत् कल्पना से मानों कि एक को कुल अरब पर्यायों का ज्ञान है, अब उसके अनंतवाँ भाग अर्थात् उदाहरण के तौर पर ५०० वाँ भाग, असंख्यातवाँ भाग अर्थात् ५० वाँ भाग, और संख्यातवाँ भाग अर्थात् ५ वाँ भाग, इस प्रकार जो आयेगा इतना हीन या अधिक । तब संख्येयगुण इत्यादि की परिभाषा यह है कि संख्यातवाँ भाग, असंख्यातवां भाग और अनंतवाँ भाग लेना। १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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