SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (ल०-) तथाप्यत्र लोकध्वनिनोत्कृष्टमतिः भव्यसत्त्वलोक एव गृह्यते, तत्रैव तत्त्वतः प्रद्योतकरणशीलत्वोपपत्तेः । (पं०-) 'तथापि' = एवमपि, 'अत्र' = सूत्रे, 'लोकध्वनिना' = लोकशब्देन, 'उत्कृष्टमतिः' औत्पत्तिक्यादिविशिष्टबुद्धिमान् गणधरपदप्रायोग्य इत्यर्थः । 'भव्यसत्त्वलोक एव' न पुनरन्यः । यो हि प्रथमसमवसरण एव भगवदुपन्यस्तमातृकापदत्रयश्रवणात् प्रद्योतप्रवृतौ दृष्टसमस्ताभिलाप्यरूपप्रद्योत्यजीवादिसप्ततत्वो रचितसकलश्रुतग्रन्थः सपदि सञ्जायते स इह गृह्यते इति । कुत एतदेवमित्याह तत्रैव' = उत्कृष्टमतावेव भव्यलोके, 'तत्त्वतो' = निश्चयवृत्त्या, 'प्रद्योतकरणशीलत्वोपपत्तेः' = (१) 'उप्पन्ने इ वा, (२) विगमे इ वा, (३) धुवे इ वा' इति पदत्रयोपन्यासेन प्रद्योतःच्य प्रकृष्टप्रकाशरूपस्य तत्छीलतया विधानघटनात् । भगवतां प्रद्योतकशक्तेस्तत्रैव भव्यलोके कात्स्येनोपयोग इतिकृत्वा । क्यों कि भव्यों को भी जिनवचन रूपी किरणों द्वारा आलोक मात्र होना और दर्शन न होना संभवित है न? उ०- नहीं, आलोक हो, और सद्दर्शन न हो, वैसा बन सकता नहीं है। क्यों कि यदि उन्हें वैसा दर्शन न होता हो तो फिर उनका आलोक व्यर्थ जाएगा; वह आलोक ही न होगा ! वस्तु वही है जो अपना कार्य करती है। आलोक का कार्य सद् दर्शन पैदा करना है। वह अगर आलोक से पैदा न होता हो, तो आलोक आलोक कैसे कहा जाए ? अतः भव्यों को आलोक होने पर दर्शन होता ही है। सारांश कि; अलबत्त 'लोकप्रद्योतकर' पद में 'लोक' शब्द से भव्य को लेना है, फिर भी इस सूत्र में लोक शब्द से उत्कृष्ट मति वाला ही भव्य जीवलोक लेना है, किंतु अन्य नहीं। 'उत्कृष्ट मति वाला' से तात्पर्य है औत्पातिकी इत्यादि विशिष्ट बुद्धि वाले ऐसे गणधर-पद के योग्यको लेना। - चार प्रकार की बुद्धि :- इन्द्रिय और मन से होने वाले २८ भेदवाले मतिज्ञान के अलावा औत्पातिकी आदि चार प्रकार की प्रकट होने वाली बुद्धि भी मतिज्ञान में मानी जाती है :- (१) औत्पातिकी बुद्धि अर्थात् बहुत विचारपरिश्रम के बिना सहज स्वभावतः तत्क्षण प्रकट होने वाली हाजिर-जवाबी योग्य बुद्धि । (२) वैनयिकी बुद्धि अर्थात् गुरु आदि के विनय से प्रकट हो वस्तुस्वरूप के मर्म को बराबर पकड़नेवाली बुद्धि । (३) कार्मिकी बुद्धि याने शिल्प इत्यादि कर्म के बार बार अध्ययन से प्रकट हुई हो और कुशाग्र हो, ऐसी बुद्धि। (४) परिणामिकी बुद्धि वह कही जाती है कि जो अन्तिम परिणाम पर दृष्टि डाल कर व्यवस्थित रुप से प्रकट होती है। गणधर कौन ? :- (१) इन औत्पातिकी आदि विशिष्ट बुद्धि जिन्होंने आत्मसात् की है तथा (२) जिनकी आत्मा में अरिहंत प्रभु द्वारा प्रथम समवसरण में ही बताए गए तीन मातृका पद (मूलभूत तीन पदत्रिपदी) को सुनकर प्रद्योत अर्थात् उत्कट प्रकाश प्रवर्तित होता है, और (३) इससे प्रद्योत के विषयभूत जीव, अजीव इत्यादि सात तत्त्वों में समाविष्ट होने वाले समस्त अभिलाप्य (शब्द से बताया जा सके एसे) पदार्थो का जिन्हें दर्शन हुआ है, विशिष्ट बोध हुआ है, तथा (४) इसी से जो तत्काल सकल श्रुतग्रंथ अर्थात् द्वादशांग आगम की रचना करनेवाले बनते हैं, वे गणधर कहे जाते हैं । उन्ही उत्कृष्ट मतिवाले भव्य जीव को यहाँ 'लोक' शब्द से लेना है। प्रश्न होगा कि ऐसा क्यों? उत्तर यह है कि तीर्थंकर देव द्वारा मात्र ऐसे उत्कृष्ट मतिवाले भव्य जीवों में ही त्रिपदी के दानपूर्वक वस्तुस्थिति से उत्कृष्ट प्रकाश उत्पन्न करने का होता है। वह त्रिपदी इन तीन पदों की बनी १२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy