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________________ शायद अधिक लाभ के हिसाब से कहीं तात्त्विकता को न देखने पर भी व्यवहार से प्रवृत्ति करते हैं, ऐसा बनता है; परन्तु वह न्याय यहाँ गणधर महर्षि द्वारा की गई स्तुति-प्रवृत्ति में लागू नहीं हो सकता, क्यों कि उस स्तुति में भगवान को सर्व-प्रदीप कहने से, अन्ध जैसे लोगों के प्रति भी प्रदीप जैसे कहने का आता है और इस से कोई ऐसा विशेष लाभ नहीं है कि जिससे कहा जा सके कि 'भाई ! गुरु-लघु भाव की अपेक्षा से ऐसा कहने की आवश्यकता है' । फलतः सर्व प्रदीप के रूप में स्तुति करने में तो केवल व्यवहार मात्र का आश्रय लिया ऐसा हुआ; और इसीलिए तो प्रस्तुत स्तुति-प्रवृत्ति स्तुतिपात्र के वास्तविक स्वभाव की समझ रहित सिद्ध होगी। अतः मानना होगा कि भगवान लोक-प्रदीप अर्थात् विशिष्ट संज्ञी लोकों के प्रति ही प्रदीप हैं, अंध समान लोगों के प्रति प्रदीप नहीं हैं, क्यों कि ऐसे लोगों को प्रभु के देशनादि-किरणों से तत्त्वप्रकाश नहीं मिलता है। सारांश कि ऐसे लोगों के प्रति अनंत ज्ञान और अनन्त प्रभावशाली परम पुरुष अर्हत् परमात्मा भी प्रदीप स्वरूप नहीं है, क्यों कि प्रदीप का कार्य प्रकाश करने का है, वह वे करते नहीं हैं। यह वस्तु कही गई है। अनंत प्रभाव की वस्तु स्वभाव को परिवर्तित नहीं कर सकता प्र०- तो फिर, भगवान में अमुक जीवों के प्रति प्रकाश सामर्थ्य न होने से, क्या उनमें अनंत प्रभावशालिता का अभाव माना नहीं जायेगा ? उ०- नहीं, प्रभावशालिता का अभाव नहीं माना जायेगा। क्यों कि प्रभाव, यह वस्तु के स्वभाव को ही विषय बनाता है। वस्तु का जो स्वभाव होगा, उसे अन्यथा न करते हुए ही कर्ता अपने प्रभाव से कार्य कर सकेगा, स्वभाव विरुद्ध नहीं। जैसे कि निपुण कुम्भार मिट्टी में से घड़ा बना सकता है, रेती या पानी में से नहीं । अन्यथा प्रभाव से यदि उस उस जीवादि वस्तु का स्वभाव ही बदल कर कार्य करेंगे तो फिर वस्तु का वह स्वभाव ही नहीं रहेगा। वस्तु के स्वभाव से विरुद्ध कार्य करने पर तो वस्तु का स्वभाव ही उड़ जाता है। क्यों कि स्वभाव का अर्थ है स्व का भाव; अर्थात् स्वकीय अस्तित्व याने अपनापन; अब उसे अगर बदला जाय तो ऐसा बनेगा, कि वस्तु अपनापन वाली भी है और विपरीतपन वाली भी है; जैसे कि माता भी है और वंध्या भी है। लेकिन यह कहना व्याहत है, वदतो-व्याघात है। इसलिए मानना चाहिए कि किसी समर्थ के द्वारा भी वस्तु का स्वभाव बदला जा सकता नहीं है। इसीलिए अर्हत् प्रभु का प्रभाव, ऐसे स्वभाव वाले संज्ञी लोगों को ही, ज्ञान-प्रकाश देने का है, सर्व जीवो को नहीं । फिर भी वहां अमुक जीवों को बोध न हो, इसमें परमात्मा के प्रभाव की कमी नहीं है, परन्तु उस उस जीव-वस्तु के स्वभाव की कमी है। सामर्थ्य या प्रभाव तो वस्तु-स्वभाव की अपेक्षा रख कर कार्यकर होता है; यानी योग्य विषय की अपेक्षा रखता है। अनंत सामर्थ्य वाले क्या अचेतन को चेतन कर सकते हैं ? :प्र०- तब तो प्रकाश के विषय न बनने वालों के प्रति तो प्रभु अप्रभावशाली यानी असमर्थ होंगे न ? उ०- नहीं, इस प्रकार यदि असमर्थ कहेंगे तो प्रभु में केवल अंध लोगों के प्रति प्रकाश करने की सामर्थ्य के अभाव की क्या बात, ऐसे तो उनमें धर्मास्तिकायादि जड चेतन द्रव्यों को चेतन करने की सामर्थ्य भी न होने से समान दोष खड़ा होगा । अर्थात् परमात्मा जिस प्रकार अंध लोगों के प्रति प्रदीप रूप बन सकते नहीं है वैसे अचेतन-जड़ को भी चेतन बना सकते नहीं है; तो वे क्या असमर्थ, अप्रभावशाली, अभगवान कहे जायेंगे? ऐसा नहीं है। अतः कहिये कि जो कोई समर्थ है, वह योग्य विषय के प्रति ही समर्थ हो सकता है। इस दृष्टि से १२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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