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है । ग्रन्थ का ठीक अध्यापन करनेवालों को ग्रन्थ पढ़ने के बाद मन से पुनरावर्तन करने के लिये यह ठीक उपयोग में आएगी।
अध्येताओं से हमारा अनुरोध है कि एक बार अच्छे ढंग से इस ग्रन्थ का अध्ययन करने के बाद इस प्रस्तावना में पहले दिये गये मुख्य विषय-विभाग एवं प्रत्येक विभाग के अवान्तर विषय समूह को ग्रन्थ के उस उस स्थान से छांटकर प्रत्येक मुख्य विभाग पर अलग संक्षिप्त नोट्स तैयार करेंगे। इससे काफी बोध बढेगा और विभागश: सुचारु चिन्तन कर सकेंगे।
प्रस्तुत ग्रन्थ संशोधन में निम्नोक्त हस्तलिखित व मुद्रित प्रति का उपयोग किया गया है ।
(१) श्री जैन ज्ञानभंडार, संवेगी उपाश्रय, हाजा पटेल की पोल, अहमदाबाद मूलग्रन्थ की ह. लि. प्रति १५०७ में चैत्र शुक्ला तृतीया के दिन पूर्ण हुई है, पृ. १९ हैं ।
(२) यहां की दूसरी ह.लि. प्रत मूल एवं पंजिका सहित पृ. ३० हैं, वि.सं. १४८६ भादरवा सुद पूर्णिमा के दिन पूर्ण हुई है।
(३) पूज्य मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजी महाराज की ह.लि. प्रति अहमदाबाद से मिली । (४) भांडारकर रीसर्च इन्स्टीटयूट, पूना से ह. लि. प्रति मिली । यह दोनों प्राचीन है।
(५) श्री देवचंद लालभाई (सूरत) ट्रस्ट तरफ से प्रकाशित श्री ललितविस्तरा मुद्रित प्रति मिली । इस प्रति पर से पहला संशोधन हुआ। इस में यद्यपि अशुद्धियां है फिर भी कई ठीक शुद्ध पाठ मिले ।
अन्त में श्री वर्धमान आचाम्ल (आयंबिल) तप के महातपस्वी प्रभावक व्याख्यानकार पूज्य गुरुमहाराजश्री का शास्त्रबोध बहुत गहरा व तर्कबद्ध चिन्तन-मनन से परिपूर्ण हैं । पदार्थ समझाने की व विवेचन लिखने की शैली सरल, रोचक व तात्त्विक है । स्व-पर न्याय ग्रन्थों का अच्छा परिशीलन किया है व अनेकों को कराया है। जिसके फलस्वरूप आपके द्वारा तैयार किये गये ऐसे महा कठिन ग्रन्थ का सुन्दर व सरल विवेचन प्राप्त करने का हमारा बड़ा सौभाग्य है । अंत में पूज्य गुरुदेवश्री बालजीवों को लक्ष्य में रखकर ऐसे अनेकानेक कठिनग्रन्थों का सरल विवेचन लिखने की अनुकूलता प्राप्त करें ऐसी भगवान से हमारी प्रार्थना है।
विद्वदर्य गुरुदेवश्री पंन्यासप्रवर अषाढ़ सुद १०
भानुविजयजी गणिवर चरणकिंकर वि.सं. २०१६
___मुनि राजेन्द्रविजय जावाल (राजस्थान)
(आचार्य विजय राजेन्दगरिजी म.)
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