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________________ १२. लोगहिआणं (लोकहितेभ्यः) (ल०-सर्वजीव-पञ्चास्तिकायार्थकः लोकशब्द:-) तथा लोकहितेभ्यः । इह लोकशब्देन सकलसांव्यावहारिकादिभेदभिन्नः प्राणिलोको गृह्यते, पञ्चास्तिकायात्मको वा सकल एव । एवं चालोकस्यापि लोक एवान्तर्भावः, आकाशास्तिकायस्योभयात्मकत्वात् । लोकादिव्यवस्थानिबन्धनं तूक्तमेव । (पं०-) 'सांव्यावहारिकादिभेदभिन्न' इति; नरनारकादिर्लोकप्रसिद्धो व्यवहारः संव्यवहारस्तत्र भवाः सांव्यवहारिकाः । 'आदि' शब्दात् तद्विपरीता नित्यनिगोदावस्था: असांव्यवहारिका जीवा गृह्यन्ते । त एव भेदौ प्रकारौ ताभ्यां भिन्न इति । सकते हैं। तो अल्प यानी एक पुद्गलपरावर्त काल के अन्दर अन्दर ही सर्व भव्यों का मोक्ष हो ही जाता है, यह नियम कहाँ रहा? उ०-ऐसा नहीं है। बीजाधान के बाद कब मोक्ष, उसका भी नियम है। कारण कि सम्यक्त्वादि उच्च धर्म की तो बात ही क्या की जाय? क्यों कि उसे धारण करनेवाले जीव को तो पीछे अर्ध पुद्गलपरावर्त जितना भी संसारकाल शेष नहीं रहता । परन्तु धर्मप्रशंसादि रूप धर्मबीज भी अपुनर्बन्धक आत्मा को ही प्राप्त हो सकता है; और उसे भी पूरा एक पुद्गलपरावर्त जितना संसार-काल भी बाकी नहीं रहता है। इसीलिए कहा जा सकता है कि अर्हत्प्रभु द्वारा सभी भव्यों को योगक्षेम करने में तो पुद्गलपरावर्त पहले के काल के तीर्थंकर भगवानने सर्व भव्य जीवों का योगक्षेम किया होता, और इसीलिए अल्पकाल में सर्व भव्यों का मोक्ष हो गया होता। परन्तु ऐसा हुआ तो नहीं है; यही उसका सूचक है कि भगवान सबों को नहीं परन्तु योग्य भव्य लोगों को योगक्षेम करनेवाले होते हैं। इस प्रकार वे लोकनाथ हैं। १२. लोगहिआणं 'लोक' का अर्थ समस्त प्राणिलोक या पंचास्तिकाय : अब 'लोगहिआणं' पद में लोक शब्द सभी सांव्यवहारिक अर्थात् व्यवहारिक राशि के और असांव्यवहारिक अर्थात् अव्यवहार-राशि के जीवों को लेना है अथवा समस्त पंचास्तिकाय लोक लेना है। इससे अलोक आकाश का भी लोक में ही अन्तर्भाव होता है क्योंकि पञ्चास्तिकाय में अन्तर्भूत आकाशास्तिकाय लोकाकाश, अलोकाकाश, उभय स्वरूप है। लोक-अलोक की व्यवस्था में क्या निमित्त है यह कह ही आये हैं। सांव्यवहारिक : व्यवहारराशि के जीव: 'सांव्यवहारिक यानी व्यवहार राशि के जीव,' संसार के वे जीव हैं, कि जो मनुष्य, नारक, पृथ्वीकायिक इत्यादि लोकप्रसिद्ध व्यवहार में आ चुके हैं। संसार में जीवों की राशि याने समूह के दो प्रकार हैं - (१) अव्यवहार राशि और (२) व्यवहार राशि। अनादि काल से तो जीव एक मात्र निगोद यानी साधारण वनस्पतिकायिक जीव के रूप में जन्म और मृत्यु पाया करते हैं । संसार में ऐसे अनंतानंत जीव हैं कि जो अभी भी केवल निगोद अवस्था में ही घूमा करते हैं। बस इन जीवों का दूसरी तरह से व्यवहार नहीं हुआ है, अर्थात् वे पृथ्वीकायिक, अप्कायिक,.... द्वीन्द्रिय,.... तिर्यंच, मनुष्य, देव इत्यादि अवस्था नहीं पाये हैं। अत: उनको अव्यवहार राशि के ११० A Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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