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________________ (ल०-सर्वभव्यनाथत्वे आपत्तिः)- न चैते कस्यचित्सकलभव्यविषये, ततस्तत्प्राप्त्या सर्वेषामेव मुक्तिप्रसङ्गात् । तुल्यगुणा ह्येते प्रायेण, ततश्च चिरतरकालातीतादन्यतरस्माद् भगवतो बीजाधानादिसिद्धेरल्पेनैव कालेन सकलभव्यमुक्तिः स्यात् । (पं०)-स्यान्मतम् 'अचिन्त्यशक्तयो भगवन्तः सर्वभव्यानुपकर्तुं क्षमाः, ततः कथमयं विशेष: ? इत्याह 'न च' = नैव, 'एते' = योगक्षेमे, 'कस्यचित्' = तीर्थकृतः, 'सकलभव्यविषये' = सर्वभव्यानाश्रित्य प्रवृत्ते । विपक्षे बाधकमाह 'ततो' = विशिष्टार्तीर्थकरात्, 'तत्प्राप्त्या' = योगक्षेमप्राप्त्या, सकलभव्यविषयत्वे योगक्षेमयोः, 'सर्वेषामेव' = भव्यानां, 'मुक्तिप्रसङ्गात्' = योगक्षेमसाध्यस्य मोक्षस्य प्राप्तेः । एतदेव भावयन्नाह 'तुल्यगुणाः' = सदृशज्ञानादिशक्तयो, 'हि' यस्मादर्थे, 'एते' = तीर्थकराः, 'प्रायेण' = बाहुल्येन, शरीरजीवितादिना त्वन्यथात्वमपीति प्रायग्रहणम्। ततः' = तुल्यगुणत्वाद् हेतोः, चिरतरकालातीतात्' = पुद्गलपरावर्त्तपरकालभूताद्, 'अन्यतरस्माद्' = भरतादिकर्मभूमिभाविनो, 'भगवतः' = तीर्थकराद्, 'बीजाधानादिसिद्धेः' = बीजाधानोभेदपोषणनिष्पत्तेरुक्तरूपायाः, अल्पेनैव कालेन' = पुद्गलपरावर्त्तमध्यगतेनैव, सकलभव्यमुक्तिः स्यात्' = सर्वेऽपि भव्याः सिध्येयुः। (ल०-बीजाधानादनु मोक्षकालनियमः) बीजाधानमपि ह्यपुनर्बन्धकस्य । न चास्यापि पुद्गलपरावर्त्तसंसार इति कृत्वा । तदेवं लोकनाथाः। (पं०-) नन्वनादावपि काले बीजाधानादिसम्भवात् कथमल्पेनैव कालेन सर्वभव्यमुक्तिप्रसङ्ग इत्याशक्याह 'बीजाधानमपि' = धर्मप्रशंसादिकमपि, आस्तां सम्यक्त्वादीति 'अपि' शब्दार्थः 'हि' = यस्माद्, 'अपुनर्बन्धकस्य' = 'पापं न तीव्रभावात् करोती'त्यादिलक्षणस्य 'न च' = नैव 'अस्यापि' = अपुनर्बन्धकस्यापि, आस्तां सम्यग्दृष्ट्यादेः, 'पुद्गलपरावर्त्तः' समयसिद्धः, 'संसार' इति संसारकालः, 'इति कृत्वा' = इति हेतोः, अल्पेनैव कालेन सर्वभव्यमुक्तिः स्यादिति योगः । प्र०- तीर्थंकर भगवान तो अचिन्त्य शक्ति -सम्पन्न होने से सभी जीवों पर उपकार करने के लिए समर्थ है, तो फिर वे सभी भव्य जीवों का नहीं, परन्तु कुछ भव्य जीवों का ही योगक्षेम करते हैं ऐसा क्यों? उ०- कारण यह है कि कोई भी तीर्थंकर समस्त भव्य जीवों का योगक्षेम कर सकते नहीं हैं। यदि सर्व सम्बन्धी योगक्षेम हो सकता हो तो किन्हीं एक तीर्थंकर प्रभु द्वारा सभी भव्य जीवों को योगक्षेम का लाभ मिल जाने के कारण सभी भव्य जीवों की मुक्ति हो जाती; क्यों कि योगक्षेम से मुक्ति साध्य होती है। फिर यह भी नहीं है कि कोई एकाध तीर्थंकर ऐसे समर्थ न होने से ऐसा कैसे हो सकता है ? क्यों कि सर्व तीर्थंकर परमात्मा प्रायः समान ज्ञानादि शक्तियों से विभूषित होते हैं। (यहाँ 'प्रायः' शब्द इसलिए उपयोग में लिया गया है कि शरीर, आयुष्य आदि में विषमता होती है।) अब समान शक्ति के हिसाब से तो बहुत पहले के भूतकालमें अर्थात् एक पुद्गल परावर्त पहले के काल में भरत क्षेत्रादि कर्मभूमि में हुए किन्हीं तीर्थकर भगवान द्वारा सर्व भव्यों को पूर्वाक्त बीजाधान अंकुरोत्पत्ति-पोषण इत्यादि का योगक्षेम हो जाने से तत्पश्चात् क्रमशः अल्पकाल में ही अर्थात् एक ही पुद्गल परावर्त के भीतर-भीतर सर्व भव्य जीवों की मुक्ति हो गई होती। धर्मबीजाधान के बाद कब मोक्ष ?प्र०-संभव है बीजाधान इत्यादि तो अनादि काल पर हुए हों लेकिन अभी भी वे जीव संसार में हो १०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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