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________________ (ल०- जैनमते न अभिधानक्रमाभाव :-) न चैकानेकस्वभावत्वे वस्तुन एवमप्यभिधानक्रमाभावः, सर्वगुणानामन्योन्यसंवलितत्वात्, पूर्वानुपूर्व्याद्यभिधेयस्वभावत्वात्ः अन्यथा तथाभिधानाप्रवृत्तेः । (पं०) 'न चे'त्यादि, 'नच' = नैव, 'एकानेकस्वभावत्वे' = एको द्रव्यतया, अनेकश्च पर्यायरूपतया, 'स्वभावः' = स्वरूपं, यस्य तत्तथा तद्भावस्तत्त्वं, तस्मिन्, 'वस्तुनः' = पदार्थस्य, 'एवमपि' = अधिकगुणोपमायोगे हीनगुणोपमोपन्यासेऽपि, 'अभिधानक्रमाभावो' = वाचकशब्दपरिपाटिव्यत्ययः । कुत इत्याह 'सर्वगुणानां = यथास्वं जीवाजीवगतसर्वपर्यायाणाम्, 'अन्योन्यं' = परस्परं 'संवलितत्वात्' = संसृष्टरूपत्वात् । किमित्याह 'पूर्वानुपूर्वाद्यभिधेयस्वभावत्वात्', पूर्वानुपूर्व्यादिभि' =व्यवहारनयमतादिभिः, 'आदि'शब्दात् पश्चानुपूर्व्यनानुपूर्वीग्रहः, 'अभिधेयः' = अभिधानविषयभावपरिणतिमान् ‘स्वभावो' येषां ते तथा तद्भावस्तत्त्वं, तस्मात् । संवलितरूपत्वे हि गुणानां निश्चितस्य क्रमादेरेकस्य कस्यचिदभावात् । व्यतिरेकमाह 'अन्यथा' = पूर्वानुपूर्व्यादिभिरनभिधेयस्वभावतायां गुणानां, 'तथा' = पूर्वानुपूर्व्यादिक्रमेण, 'अभिधानाप्रवृत्ते' = अभिधायकानां ध्वनीनामभिधानस्य = भणनस्याप्रवृत्तेः । नैवमप्यभिधानक्रमाभाव' इति योगः। जावेगा, कोई क्रम के अनुसार रहेगा नहीं ! क्यों कि यदि वाच्य गुणों में कोई कम नहीं तो वाचक शब्दों में भी क्रम कहां से? उ०- यह कल्पना ठीक नहीं है; कारण, वाचक शब्दों में यानी किसी भी प्रतिपादन में क्रम एक-सा ही नहीं है, पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, या अनानुपूर्वी क्रम से प्रतिपादन हो सकता है। इसका अर्थ यही है कि वाचक शब्दो में तथाविध क्रम है ही। पूर्वानुपूर्वी क्रम इसे कहते है कि जहां शुरु से लेकर उत्तरोत्तर गुण यावत् अंत तक वर्णित किये जाए । पश्चानुपूर्वी वह कही जाती है, जिस में अन्तिम से ले कर पूर्वपूर्व गुण यावत् प्रारम्भ तक प्रतिपादन किये जाएँ; और अनानुपूर्वी में इन दोनों को छोड कर और कम से प्रतिपादन होता है। इन विविध क्रम होने का कारण यह है कि शब्दों से वाच्य खुद वस्तु ऐसा विषयभाव धारण करती है जो पूर्वानुपूर्वी आदि क्रम वाले कथन के अनुरुप हो । वस्तु स्वयं ऐसे ऐसे विषयभाव में परिणत होने के स्वभाव वाली होती है। वस्तु में ऐसा ऐसा स्वभाव होने से ही उस उस प्रकार के प्रतिपाद्य रूप में वह बन आती है। और तभी तो उसके मुताबिक यथार्थ प्रतिपादन यानी शब्दरचना चल सकती है। गुण-पर्यायों का संवलन:__ प्र०- वस्तु पहले अधिक गुण द्वारा और बाद में हीन गुण द्वारा प्रतिपाद्य हो ऐसा स्वभाव कैसे बन सकता है? उ०- यह बनने का कारण यह है कि कोई भी जीव या अजीव वस्तु लिजिए, इस में रहने वाले सभी गुण, सभी पर्याय, व्यवहार नयमत से, परस्पर संवलित यानी संबद्ध होते हैं । तभी तो देखा जाता है कि गुणों के प्रतिपादन का कोई अमुक ही क्रम नहीं किंतु वे गुण कभी पूर्वानुपूर्वी क्रमसे भी प्रतिपादित होते हैं, और कभी पश्चानुपूर्वी या अनानुपूर्वी क्रमसे भी वर्णित होते हैं। ऐसे ऐसे ढंग से वस्तु प्रतिपादित हो सकती है इस से यह सूचित होता है कि वस्तु में प्रतिपाद्य बनने का ऐसा ऐसा स्वभाव है। अगर ऐसा ऐसा पूर्वानुपूर्वी आदि विविध क्रमों से प्रतिपाद्य होने का स्वभाव न होता, तो वैसे वैसे विविध क्रमों से प्रतिपादन करने वाले शब्दों का उच्चारण ९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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