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________________ ९. पुरिसवरगन्धहत्थीणं (पुरुषवरगन्धहस्तिभ्यः) गुणक्रमाभिधानवाद - तन्निरासौ : (ल०-) एतेऽपि (प्र०... एते च) यथोत्तरं गुणक्रमाभिधानवादिभिः सुरगुरुविनेयै नगुणोपमायोग एवाधिकगुणोपमारे इष्यन्ते, अभिधानक्रमाभावेऽभिधेयमपि तथा, 'अक्रमवदसद्' इति वचनात् ।। (पं०-) 'यथोत्तर' मित्यादि, 'यथोत्तरं' 'गुणानां' = पुरुषार्थोपयोगिजीवाजीवधर्माणां गुणस्थानकानामिव 'क्रम' = उत्तरोत्तर प्रकर्षलक्षणः, तेन 'अभिधानं' = भणनं विधेयम्, ('वादिभिः'=) वदन्तीत्येवंशीलास्तैः, 'सुरगुरुविनयैः' = बृहस्पतिशिष्यैः, 'हीनगुणोपमायोगे एव' = हीनगुणोपमयोपमित एव गुणे, हीनगुण इत्यर्थः, 'अधिकगुणोपमारे इष्यन्ते' = अधिकगुणोपमोपन्यासेनाधिकोगुण उपमातुं युक्त इत्यर्थः । तथाहि, गन्धगजोपमया महाप्रभावशक्रादिपुरुषमात्रसाध्ये मारीतिदुर्भिक्षाद्युपद्रवनिवर्तकत्वे भगवद्विहारस्य साधिते, पुण्डरीकोपमया भुवनाद्भुतभूतातिशयसम्पत्केवलज्ञानश्रीप्रभृतयो निर्वाणप्राप्तिपर्यवसाना गुणा भगवतामुपमातुं युक्ता इति । कुत इत्याह 'अभिधानक्रमाभावे' = वाचकध्वनिपरिपाटिव्यत्यये, 'अभिधेयमपि' = वाच्यमपि, 'तथा' = अभिधानवद्, 'अक्रमवत्' = परिपाटिरहितम्, 'असत्' = अविद्यमानं, क्रमवृत्तिजन्मनोऽभिधेयस्याक्रमोक्तौ तद्रूपेणास्थितत्वात् । ९. परिसवरगन्धहत्थीणं 'गुणों के क्रम से ही कथन युक्त है'- इस मत का पूर्वपक्ष : अब यहां बृहस्पति के शिष्य जो मानते हैं कि पुरुषार्थ - उपयोगी जीव-अजीव के गुणों में गुणस्थानक की तरह क्रम हैं, अतः वे कहते हैं कि पूर्वोक्त प्रकार के भी परमात्मा में, पहले हीन गुण की उपमा द्वारा तुलना कि जाए बाद ही अधिक गुण की उपमा देना योग्य है, ऐसी उपमा का उपन्यास कर के उनके अधिक गुणों की तुलना करनी चाहिए। उदाहरणार्थ, भगवान् में अपने विहार के प्रभाव से महा-मारी, मरकी, प्लेग, दुष्काल, इत्यादि उपद्रवों के निवारण करने का जो गण है वह नीची कोटि का गुण है; क्यों कि वह तो महान प्रभावशाली इन्द्रादि पुरुष से भी सिद्ध हो सकता है और त्रिभुवन में अद्भुत ऐसे वास्तविक अतिशयों की संपत्ति और केवलज्ञान स्वरुप लक्ष्मी प्रमुख मोक्षप्राप्ति पर्यन्त के जो गुण हैं, वे अधिक उच्च कोटि के गुण हैं, जो कि इन्द्रादि से भी साध्य नहीं । अब परमात्मा को उपमा लगानी हो तो पहले गन्धहस्ति की उपमा द्वारा उपद्रव-निवारण का निम्न कक्षा का गुण दिखला कर, पीछे पुण्डरीक की उपमा द्वारा ३४ अतिशय आदि ऊँचे गुण वर्णन करने योग्य हैं। इसका कारण यह है कि वस्तु के वाचक शब्दों में अगर पठनक्रम का व्यत्यास हो, तो पठन की तरह वाच्य वस्तु भी क्रमव्यत्यास वाली यानी क्रमरहित सिद्ध होगी । अब आगम सूत्र है कि 'अक्रमवद् असद्'- जो वस्तु सचमुच क्रमवाली है अर्थात् वस्तु के जो वक्तव्य गुण यों तो क्रम में रहनेवाले हैं उन्हें अक्रम से कहने में वे अक्रम प्रतिपादन के विषय बनने से अक्रम रूप हो जाते है, अतः असत् हो जाते हैं; क्योंकि वे अक्रम से हैं ही नहीं। तात्पर्य, अक्रम से प्रतिपादन का प्रतिपादन का प्रतिपाद्य असत् सिद्ध होता है। प्रस्तुत में 'पुरिसवरपुण्डरीयाणं' के बाद 'पुरिसवरगंधहत्थीणं' - इस प्रतिपादन में क्रमभङ्ग होता है तो प्रतिपाद्य विषय भी असत् हो जाता है। यह वादी का अभिप्राय है। अब इसका उत्तर देते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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