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(ल०)-सत्त्वविशिष्टताऽपि न, विशेषणमन्तरेणातिप्रसङ्गात् । एवं नाभिन्ननिमित्तत्वाद् ऋते विरोध इति पुरुषवरपुण्डरीकाणि ॥८॥
(पं०) अत्रैव मतान्तरं निरस्यन्नाह 'सत्त्वविशिष्टतापिन''विशिष्टं' = स्वपरपक्षव्यावृत्तं, 'सत्त्वमपि' = बौद्धाभिमतं, 'न' = नैव, अमूर्त्तत्वादि, इत्यनुवर्तते । अविशिष्टं सत्त्वं प्रागुक्तयुक्तेरमूर्त्तत्वादि न भवत्येवेति ‘अपि' शब्दार्थः । कुत इत्याह 'विशेषणं' = भेदकम्, 'अन्तरेण' = विना, 'अतिप्रसङ्गाद्' = अतिव्याप्तेः । विशिष्टतायाः सत्त्वैकरुपे जीवे भेदकरूपान्तराभावे चेतनादिविशिष्टरूपकल्पनायाम्, अजीवेऽपि तत्कल्पनाप्राप्तेरिति । एवं' = एकस्वभावे वस्तुन्यनेकदोषोपनिपातेन विचित्ररूपवस्तुसिद्धौ ‘न', 'विरोधो' = विजातीयोपमाप्पितधर्मपरस्परनिराकरणलक्षणो । विजातीयोपमायोगेऽपि किं सर्वथा न ? इत्याह 'अभिन्ननिमित्तत्वादृते' = अभिन्ननिमित्तत्वं विना । यदि ह्येकस्मिन्नेवोपमेयवस्तुगते धर्मे निमित्ते (सति) उपमा सदृशी विसदृशी च प्रयुज्येत, ततः स्यादपि विरोधो, न तु विसदृशधर्मानिमित्तासूपमास्वनेकास्वपि । पुरुषवरपुण्डरीकेत्यनेन सदृशी विसदृशी चोपमा सिद्धेति । ८।
कि वस्तुमें अगर ऐसा एकानेकस्वभाव न हो तो वस्तुत्व ही सिद्ध नहीं होगा। उदाहरणार्थ देखिए कि कोई जीववस्तु जीवद्रव्य रूप से एक है, लेकिन इस में जो सत्त्व, अमूर्तत्व, चेतनत्व आदि धर्म हैं वे अनेक हैं; और वे जीव के स्वभावभूत हैं। सत्त्व एक ऐसा वस्तुधर्म है कि जिस की वजह से वस्तु सत् है ऐसा ज्ञान होता है, और वस्तु का सत् रूप से व्यवहार होता है। ज्ञान और व्यवहार निर्मूलक नहीं हो सकते, अतः इन के अनुकूल धर्म वस्तु में मानना चाहिए। अमूर्तत्व का अर्थ है रूप-रसादि न होना, जैसे कि आकाश, जीव वगैरह अमूर्त हैं। चेतनत्व का अर्थ होता हैं चैतन्यशालिता यानी ज्ञान-दर्शन का स्फुरण । चेतनत्व आदि में 'आदि' शब्द से और भी प्रमेयत्व, प्रदेशवत्व वगैरह भिन्न भिन्न धर्म लिए जाते हैं। प्रमेयत्व का अर्थ है प्रमाण ज्ञान की विषयता । प्रदेशवत्व है सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंश सहितपन । वाच्यत्व है उस उस शब्द से अभिधेय होने का वस्तुधर्म । वैसे कई धर्म वस्तु में होते हैं और वस्तु तद्रूप होती है; अतः वस्तु अनेकस्वभाव कही जाती है। यदि जीवादि वस्तु उन धर्मो से रहित होती तो उस में परस्पर भिन्न ऐसे जीवत्व आदि विविध स्वरूप भी नहीं बन सकते, यह न्यायमुद्रा अर्थात् युक्तिमर्यादा है। कितनी ही बुद्धिसंपत्ति रखने वाले पुरुषों से भी उस मर्यादा का उल्लंघन किया जा सकता नहीं है।
प्र०—यदि जीव, सत्त्व अमूर्तत्व आदि धर्मो की वजह भिन्न भिन्न यानी अनेक स्वभाववाला न हो तो भी कोई हर्ज नहीं है; कारण अमूर्तत्वादि धर्म सत्त्व को छोड़ कर तो रह सकते नहीं, अतः वे सत्त्व रूप हैं। इस से जीवादि सत् पदार्थ में जब सत्त्व हैं तो मूर्तत्व, चेतनत्वादि हैं ही; तब फिर चेतनत्व आदि का अभाव कैसे?
उ०- यहाँ आप चूकते हैं, जो सत्त्व धर्म है वही जीवादिगत अमूर्तत्व-चेतनत्वादि धर्म है ऐसा नहीं; अर्थात् वे सत्त्व स्वरूप नहीं है; क्यों कि सत्त्व है शुद्ध संग्रहनय से मान्य की गई केवल सत्ता स्वरूप; और वह तो घड़ा वगैरह सभी पदार्थों में है, अन्तिम संग्रह नयमत से सत् कर के सभी पदार्थ संग्रहीत किये जाते हैं। तब फलित यह होगा कि अमूर्तत्व आदि धर्म सत्त्व रूप मान लेने पर तो घड़ा आदि सभी पदार्थो में सत्त्व होने से अमूर्तत्वादि धर्मो की आपत्ति लगेगी ! अमूर्तत्वादि धर्म सत्त्व से सर्वथा अभिन्न हो तो वे सत्त्व के अस्तित्व में क्यों प्राप्त नहीं ? और जब घड़ा आदि जड मूर्त पदार्थो में अमूर्तत्व-चेतनत्वादि प्राप्त हुए, तब उनके विरोधी मूर्तत्व अचेतनत्वादि धर्मों का इन में अभाव आ पड़ेगा! और यदि कहेंगे कि मूर्तत्वादि का अभाव नहीं है किन्तु सद्भाव है, तब तो वे सत्त्व रूप स्वीकृत किये होने से जीव में सत्त्व के साथ इन्हीं मूर्तत्व-अचेतनत्व की आपत्ति होगी,
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