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वस्तु एकानेकस्वभावम् :
(ल.)-नैवं भिन्नजातीयोपमायोगेऽप्यर्थतो विरोधाभावेन यथोदितदोषसंभव इति । एकानेकस्वभावं च वस्तु, अन्यथा तत्तत्त्वासिद्धेः । सत्त्वामूर्त्तत्वचेतनत्वादिधर्मरहितस्य जीवत्वाद्ययोग इति न्यायमुद्रा । न सत्त्वमेवामूर्त्तत्वादि, सर्वत्र तत्प्रसङ्गात्; एवं च मूर्त्तत्वाद्ययोगः ।
(पं०)-'एकानेकस्वभावं (च)' चकार: प्रकृतोपमाऽविरोधभावनासूचनार्थः द्रव्यपर्यायरूपत्वात् (प्रत्यन्तरे.... ०रूपतया) 'वस्तु' = जीवादि इति पक्षः । अत्र हेतुः ‘अन्यथा' = एकानेकस्वभावमन्तरेण ('तत्तत्त्वासिद्धेः') तस्य = वस्तुनः, तत्त्वं = वस्तुत्वं, तस्यासिद्धेः । एतद्भावनायैवाह 'सत्त्वामूर्त्तत्वचेतनत्वादिधर्मरहितस्य', 'सत्त्वं' = सत्प्रत्ययाभिधानकारित्वं, 'अमूर्त्तत्वं' = रूपादिरहितत्वं, 'चेतनत्वं' = चैतन्यवत्त्वं, 'आदि' शब्दात् प्रमेयत्वप्रदेशवत्त्वादिचित्रधर्मग्रहः, तैः 'रहितस्य' = अविशिष्टीकृतस्य, वस्तुनो ‘जीवात्वाद्ययोग' = परस्परविभिन्नजीवत्वादिचित्ररूपाभावः, 'इति' = एषा, 'न्यायमुद्रा' = युक्तिमर्यादा वर्तते, प्रज्ञाधनैरपि परैरुल्लवितुमशक्यत्वात् । ननु सत्त्वरूपानतिक्रमादमूर्त्तत्वादीनां, कथं संति सत्त्वे जीवत्वाद्ययोग इत्याशङ्कयाह 'न' = नैव, 'सत्त्वमेव' = शुद्धसङ्ग्रहनयाभिमतं सत्तामात्रमेव, 'अमूर्त्तत्वादि' = अमूर्त्तत्व चैतन्यादि जीवादिगतं, कुत इत्याह 'सर्वत्र'-सत्त्वे घटादौ, 'तत्प्रसङ्गात्' = अमूर्त्तत्वचैतन्यादिप्राप्तेः, सत्वैकरूपात् सर्वथाऽव्यतिरेकात् । यदि नामैवं ततः किम् ? इत्याह 'एवं च' = सत्त्वमात्राभ्युपगमे च 'मूर्त्तत्वाद्ययोगो' = मूर्त्तत्वाचैतन्याद्यंभावः । तद्भावे च तत्प्रतिपक्षरूपत्वादमूर्त्तत्वादीनामप्यभावः प्रसजति, तथा च लोकप्रतीतिबाधा।
भावोल्लास से उज्ज्वलित हो उठते हैं, कर्तृत्वाभिमान नामशेष होता है, और साधना में आत्मा क्रमशः परमात्मा के निकट जा पहुंचती है।
उपमा में विरोध क्यों नहीं :
प्र०-परमपुरुष परमात्मा को तुच्छ एकेन्द्रिय पुण्डरीक की उपमा लगाना यह क्या विरुद्ध नहीं प्रतित होता हैं ?
उ०- नहीं, जिस प्रकार हमने पुण्डरीक के विशिष्ट गुणों के साथ परमात्मा के विशिष्ट गुणों का साम्य दिखलाया उसी प्रकार, सोचने से पता लगेगा कि, यद्यपि पुण्डरिक उपमान एकेन्द्रिय होने की वजह भिन्न जाति का है अतः विरुद्ध लगता है तथापि अर्थतः, यानी तात्पर्यतः कोई विरोध नहीं है; जन्म और वर्धन के स्थान से अलग हो अलिप्त जीवन जीना, विशिष्ट सौन्दर्य, विशिष्ट श्रीवास, आनन्दहेतुता इत्यादि गुण धरना,-यह इतर पुष्प और इतर मनुष्यों की अपेक्षा विशिष्टतम रूप दोनों के भीतर होता है। यदि दोनों में परस्पर विरोध ही होता तो इतर में नहीं ऐसा साम्य इन दोनों में कैसे आ सकता? तात्पर्य, उपमा भावार्थ की दृष्टि से विरुद्ध नहीं है इसीलिए पूर्वाक्त जो कल्पित दोष कि,-भिन्न एकेन्द्रियादि जाति की उपमा लगाने में अरिहंत में भी एकेन्द्रियता आदि धर्मो की आपत्ति खडी होने से अरिहंत अवस्तु ठरहेंगे'- यह दोष, वैसा विरोध ही न होने के कारण सार्वकाश नहीं है, उत्थान ही नहीं पा सकता है।
वस्तुमात्र एकानेकस्वभाव वाली होती हैं:
प्रस्तुत उपमा के द्वारा प्रभु को उपमेय बनाने में कोई विरुद्धता नहीं है इस में यह भी कारण है कि जीव आदिवस्तुमात्रएकानेकस्वभाववाली है अर्थात्य रूपसेएकऔर पर्यायरूपसेअनेकस्वभाववाली है। कारण यह है
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