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________________ ७० वड्डमाणचरिउ __ कवि की यह उक्ति उसकी मानसिक कल्पनाकी उपज नहीं है। उसने प्रचलित परम्पराको ध्यानमें रखकर ही उसका कथन किया है। वन्दीजनों अथवा चारण-भाटोंके कर्तव्योंमें से एक कर्तव्य यह भी था कि वे वीर पुरुषों ( मृतक अथवा जीवित ) की वंश-परम्परा तथा उनके कार्योंका विवरण रखा करें। राजस्थानमें यह परम्परा अभी भी प्रचलित है । वहाँके चारण-भाटोंके यहाँ वीर पुरुषोंकी वंशावलियाँ, उनके प्रमुख कार्य तथा तत्कालीन महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ सामग्रियाँ भरी पड़ी हैं। मुहणोत नैणसी (वि. सं. १६६७-१७२७) नामक एक जैन इतिहासकारने उक्त कुछ सामग्रीका संकलन-सम्पादन किया था जो 'मुहणोत नैणसीकी ख्यातं' के नामसे प्रसिद्ध एवं प्रकाशित है। राजस्थान तथा उत्तर एवं मध्यभारतके इतिहासकी दृष्टिसे यह संकलन अद्वितीय है। कर्नल टॉडने इस सामग्रीका अच्छा सदुपयोग किया और राजस्थानका इतिहास लिखा। किन्तु उक्त ख्यातोंमें जितनी सामग्री संकलित है, उसकी सहस्रगुनी सामग्री अभी अप्रकाशित ही है। उसके प्रकाशनसे अनेक नवीन ऐतिहासिक तथ्य उभरेंगे। इतिहासलेखनके क्षेत्रमें इन चारण-भाटोंका अमूल्य योगदान विस्मृत करना समाजकी सबसे बड़ी कृतघ्नता होगी। विबुध श्रीधरने समकालीन चारण-भाटोंके उक्त कार्य का विशेष रूपसे उल्लेख कर उनके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की है। (३) विबुध श्रीधरने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि वह यमुना नदी पार करके हरयाणासे 'ढिल्ली' आया था। "दिल्ली' नाम पढ़ते-पढ़ते अब 'ढिल्ली' यह नाम अटपटा-जैसा लगने लगा है। किन्तु यथार्थमें ही दिल्लीका पुराना नाम ढिल्ली एवं उसके पूर्व उसका नाम किल्ली था। 'पृथ्वीराजरासो'के अनुसार पृथ्वीराज चौहानकी माँ तथा तोमरवंशी राजा अनंगपालको पुत्रीने पृथ्वीराजको किल्ली--ढिल्लीका इतिहास इस प्रकार सुनाया है-"मेरे पिता अनंगपालके परखा राजा कल्हण ( अपरनाम अनंगपाल ), जो कि हस्तिनापुरमें राज्य करते थे. एक समय अपने शर-सामन्तोंके साथ शिकार खेलने निकले। वेज विशेष स्थानपर पहुँचे, ( जहाँ कि अब दिल्ली नगर बसा है ) तो वहाँ देखते हैं कि एक खरगोश उनके शिकारी कुत्तेपर आक्रमण कर रहा है। राजा कल्हण (अनंगपाल) ने आश्चर्यचकित होकर तथा उस भूमिको वीरभूमि समझकर वहाँ लोहेकी एक कीली गाड़ दी तथा उस स्थानका नाम किल्ली अथवा कल्हणपुर रखें इसी कल्हन अथवा अनंगकी अनेक पीढ़ियोंके बाद मेरे पिता अनंगपाल ( तोमर) हुए। उनकी इच्छा एक गढ़ बनवाने की हुई। अतः व्यासने मुहर्त शोधन कर वास्तु-शास्त्रके अनुसार उसका शिलान्यास किया और • कहा कि हे राजन्, यह जो कोली गाड़ी जा रही है उसे पांच घड़ी तक कोई भी न छुए, यह कहकर व्यासने ६० अंगुल की एक कील वहाँ गाड़ दी और बताया कि वह कील शेषनागके मस्तकसे सट गयी है। उसे न उखाड़नेसे आपके तोमर-वंशका राज्य संसारमें अचल रहेगा। व्यासके चले जाने पर अनंगपालने जिज्ञासावश वह कोल उखड़वा डाली । उसके उखड़ते ही रुधिरकी धारा निकल पड़ी और कीलका कुछ अंश भी रुधिरसे सना था। यह देख व्यास बड़ा दुखी हुआ तथा उसने अनंगपालसे कहा अनंगपाल छक्क वै बुद्धि जोइसी उक्किल्लिय । भयौ तुंअर मतिहीन करी किल्ली ते ढिल्लिय ।। कहै व्यास जगज्योति निगम-आगम हों जानी । तुंवर ते चौहान अन्त है है. तुरकानी ॥ हूँ गड्डि गयौ किल्ली सज्जीव हल्लाय करी दिल्ली सईव । फिरि व्यास कहै सुनि अनंगराइ भवितव्य बात मेटी न जाई ।। १. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा द्वारा सम्पादित तथा काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा १६२६ ई. में प्रकाशित। २. पासणाह.-११२।१६।। ३. पृथ्वीराज रासो-(ना.प्र.स.).प्र. भा., भूमिका-पृ. २५-२६ । ४. सम्राट् पृथ्वीराज, कलकत्ता ( १६५०), ५.३०-३१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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