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प्रस्तावना
श्वेताश्वतर-उपनिषद् तथा भगवद्-गीतामें कपिलका नाम आदरपूर्वक लिया गया है। डॉ. राधाकृष्णन्ने 'कपिल' को भगवान् बुद्धसे लगभग एक शताब्दी पूर्वका बतलाया है । उक्त तथ्योंसे कपिलकी प्राचीनता सिद्ध होती है। जैन-सम्प्रदाय यदि कपिलके गुरु मारीचिको लाखों वर्ष पूर्वका मानता है, तो उसका पक्ष भी गम्भीरतापूर्वक विचारणीय अवश्य है।
कवि श्रीधरने सांख्योंके विषयमें दो बातोंके उल्लेख किये। प्रथम तो यह कि वे २५ तत्त्व मानते थे (२।१६।१ ), और द्वितीय यह कि सांख्यमतानुयायी संन्यासी 'परिव्राजक' कहलाते थे (२।१६।२)।
कविने अन्य मतोंमें नारायण एवं भागवत-सम्प्रदायोंकी चर्चा की है और उनमें क्रमशः मन्दिरपुरके अग्निमित्र ब्राह्मण एवं शक्तिवन्तपुरके संलंकायन नामक विप्रोंके विषयमें कहा है कि वे घरोंमें रहते हए भी त्रिदण्ड एवं चला धारण करते थे। वे कुसुम, पत्र एवं कुशसे पूजा करते थे तथा गंगाजलको सर्वाधिक पवित्र मानते थे (२।९)। ये लोग यज्ञ-यागादिमें बहुत विश्वास रखते थे। इन उल्लेखोंसे उनके आचार-विचारपर प्रकाश पड़ता है । इनके साधु भी 'परिव्राजक' कहलाते थे ( २।१८।५ )।
कविने आजीवक-सम्प्रदायका नामोल्लेख मात्र किया है। यह सम्प्रदाय भी अत्यधिक प्राचीन है। 'उवासगदशाओ' में श्रमण महावीर एवं मक्खलिपत्र 'गोशाल' का भाग्य एवं पुरुषार्थ सम्बन्धी शास्त्रार्थ सुप्रसिद्ध है। उसके अनुसार मक्खलिपुत्र गोशाल भाग्यवादी था एवं श्रमण महावीर पुरुषार्थवादी। उन दोनोंके शास्त्रार्थमें मक्खलिपुत्र-गोशाल बुरी तरहसे पराजित हो गया था।
___आजीवक-सम्प्रदायके विषयमें विद्वानोंमें विभिन्न मान्यताएं हैं। कुछ विद्वान् उसे बुद्ध एवं महावीरके पूर्वकालका मानते हैं ( पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म, प. १९, २३)। डॉ. हार्नले-जैसे शोध-प्रज्ञ गोशाल उसका संस्थापक मानते हैं । और मुनि श्री कल्याणविजयजी-जैसे अध्येता विद्वान उसे उसका समर्थ प्रचारक मानते हैं । कल्याण विजयजीके मतका आधार अर्धमागधी-जैनागम साहित्य तथा रामायण एवं महाभारतके वे प्रसंग प्रतीत होते है, जिनमें दैववादका वर्णन आता है। भगवती-सूत्रमें आजीवक-सम्प्रदायकी प्राचीनताके विषयमें एक सन्दर्भ प्राप्त होता है, जिसके अनुसार गोशालकने आजीवक-सम्प्रदायके पूर्वाचार्योंका नामोल्लेख कर उसके प्राचीन इतिहासपर स्वयं प्रकाश डाला है। वह भगवान् महावीरसे कहता है कि दिव्य-संयूथ तथा सन्निगर्भके भवक्रमसे मैं सातवें-भवमें उदायी कुण्ड्यायन हुआ था। बाल्यावस्थामें ही मैंने धर्माराधन किया और अन्तमें उस शरीरको छोड़कर क्रमशः ऐणेयक, मल्लराम, माल्यमण्डित, रोह, भारद्वाज और गौतमपुत्रअर्जुन इन छह मनुष्योंके शरीरोंमें प्रवेश किया और क्रमशः २२, २१, २०, १९, १८ एवं १७ वर्षों तक उनमें बना रहा । अन्तमें मैंने गौतमपुत्र-अर्जुनका शरीर छोड़कर गोशालक ( मक्खलिपुत्र) के शरीरमें यह सातवाँ शरीरान्तर प्रवेश किया है, और उसमें कुल १६ वर्ष रहने के उपरान्त मैं निर्वाण प्राप्त करूँगा।" उक्त तथ्योंसे ज्ञात होता है कि आजीविक-सम्प्रदाय यदि बहुत अधिक प्राचीन नहीं, तो २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथके समयमें एक विकसित सम्प्रदायके रूपमें अवश्य रहा होगा। ..
आजीवक-सम्प्रदाय आगे चलकर जिस तीव्र गतिसे विस्तृत एवं लोकप्रिय हुआ, उसी तीव्र गतिसे उसका ह्रास भी हुआ। ७वीं शताब्दीमें उसके परिव्राजकोंके नाम पण्डरभिक्खु, पाण्डुरंग, पण्डरंग अथवा स-रजस्क-भिक्खुके रूप में मिलते हैं। १०वीं-११वीं शताब्दीमें उसकी वेश-भूषा एवं आचार-विचारमें इतना परिवर्तन हो गया कि शीलंकाचार्य और भट्टोत्पलने उन्हें एकदण्डो तथा शैव एवं नारायण-भक्त तक कह
१. दे. हॉर्नले द्वारा सम्पादित उवासगदसाओ, ७वाँ अध्ययन, ( कलकत्ता १८८५-८८ ई.)। R. Encyclopeadia of Religion and Ethics, page 130. ३. श्रमण भगवान महावीर (मुनि श्री कल्याणविजयजी कृत), पृ. २६४ । ४. आगम एवं त्रिपिटक ( मुनि श्री नगराजजी), कलकत्ता. १६६६, पृ. २६ ।
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