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वड्डमाणचरिउ
१९. शस्त्रास्त्र, युद्ध-विद्याएँ और सिद्धियाँ ११वीं-१२वीं सदीमें जिस प्रकारके शस्त्रास्त्र प्रमुख रूपसे युद्धोंमें प्रयुक्त होते थे 'वड्डमाणचरिउ' से उनकी कुछ सूचनाएँ प्राप्त होती हैं । उसमें उपलब्ध युद्ध-सामग्रीको निम्न वर्गों में विभक्त किया जा सकता है
(१) चुमनेवाले अस्त्र-शस्त्र-जैसे-छुरी ( ५।१४।७), कृपाण ( ५:१३।४ ), खुरपा (१०।११। ९), कुन्त ( ५।१४।५ ), त्रिशूल (१०।२५।१०)।
(२) काटनेवाले अस्त्र-शस्त्र-करवाल ( ५।७।५, ५।१४।४, १०।२६।१३-१४ ), खड्ग ( ५।९। १५), चक्र ( ५।१२।९), धारावली चक्र (५।२३।२), सहस्रार चक्र ( ५।६।१०), चित्तलिय ( ४।५।८ )।
(३) चूर-चूर कर डालनेवाले अस्त्र-शस्त्र-मुसल (५।७।९, ५।९।१५-१६ ), (६।४।४ ), मुद्गर ( ५।१५।३ ), गदा ( ५।९।१५-१६; ५।२०।१० ) एवं लांगल ( ५।९।१५-१६, ५।२०।१० )।
(४) दूरसे फेंककर शत्रुका वध करनेवाले अस्त्र-अमोघशक्ति ( ५।१।४१ ) एवं विविध बाणयथा-अर्धमृगांकबाण ( ५।१७।१७ ), नागबाण ( ५।२२।६ ), गरुडबाण ( ५।२२१७ ), वज्रबाण ५।२१। १४, ५।२२।९ ) अग्निबाण (५।२२।१०), जलबाण ( ५।२२।१२ ), शक्तिबाण ( ५।२२।१३ ), पाञ्चजन्य बाण ( ५।९।१५) एवं नाराच अर्धचन्द्रबाण ( ९।१९।११)।
कविने इन शस्त्रास्त्रोंके अतिरिक्त कई प्रकारको दैवी-विद्याओं एवं सिद्धियोंकी भी चर्चा की है। प्रतीत होता है कि अपनी विजयकी प्राप्ति हेतु पूर्व-मध्यकालमें मन्त्रों, तन्त्रोंका भी सहारा लिया जाता था । कविने यद्ध-प्रसंगोंमें अवलोकिनी देवी, जो कि शत्रु-सेनाका रहस्य जाननेके लिए भेजी जाती थी, उसका उल्लेख किया है ( ५।९।६ )।
शक्तियों में प्रमुख रूपसे उसने अमोघ मुख-शक्ति ( ५।९।१३; ५।९।१५ ), दन्तोज्ज्वल-शक्ति (५।१४।१ ) एवं प्रज्वलित-शक्ति ( ५।२२।१४ ) का उल्लेख किया है।
विद्याओं में उसने अहित निरोधिणी विद्या (४।१८।१२ ), हरिवाहिणी विद्या (४।१९।३ ) तथा वेगवती ( ४।१९।३ ) नामकी विद्याओंके उल्लेख किये हैं और लिखा है कि त्रिपृष्ठको ५०० प्रकारकी विद्याएँ सिद्ध थीं (४।१९।३)। इस प्रकार सिद्धियोंमें उसने विजया और प्रभंकरीके उल्लेख किये हैं ( ४।१९।१ ) ।
२०. दर्शन और सम्प्रदाय संस्कृतिके पोषक-तत्त्वोंमें दर्शन अपना प्रधान स्थान रखता है। उसमें चेतन-तत्त्वके निरूपण तथा विश्लेषण, अध्यात्म-जागरण और आत्म-शोधनकी प्रक्रियाका निदर्शन रहता है। विबुध श्रीधरने इसीलिए जैन-दर्शनके प्रमुख तत्त्व 'जीव'का विस्तृत विश्लेषण तो किया ही, साथ ही उसने समकालीन प्रमुखता-प्राप्त अन्य दर्शनों व सम्प्रदायोंकी भी चर्चाएँ की हैं। इनमें सांख्य, नारायण, भागवत तथा आजीवक-दर्शन तथा सम्प्रदाय उल्लेखनीय हैं।
श्रमण-परम्परामें ऐसी मान्यता है कि सांख्य-दर्शनकी स्थापना 'मारीचि' ने की थी। यह मारीचि आदि-तीर्थकर ऋषभदेवका पोता (भरतपुत्र ) था। जब उसे यह ज्ञात हआ कि वह अगले भवोंमें अन्तिम तीर्थकर महावीरके रूपमें जन्म धारण करेगा, तब वह अहंकारसे भर उठा । पूर्वमें तो उसने कठोर जैन तपस्या को, किन्तु बादमें वह तपसे भ्रष्ट हो गया और उसी स्थितिमें उसने सांख्य-मतको स्थापना और प्रचार किया ( २।१५।१३-१४)। जैन इतिहासके अनुसार मारीचिका समय लाखों वर्ष पूर्व है । कविने मारीचिके विषयमें कहा है कि 'वह धर्मच्युत, मिथ्यात्वी एवं कुनयी हो गया ( २०१५।८-१०)। इसके बाद उसने चर्चा की है कि उसी मारीचिने कपिल आदिको अपना शिष्य बनाया ( २।१५।१०)। कविके कुनयवादी एवं मिथ्यात्वी कहनेका तात्पर्य यही है कि वह जनधर्मसे विमुख हो गया।
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