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वडमाणचरिउ असग-सतां प्रियः काञ्चनकूटकोटिषु ज्वलज्जपालोहितरत्नरश्मिभिः ।
जिनालयान्पल्लविताम्बरद्रुमानकारयद्धर्मधना हि साधवः ॥ कपोलमूलस्रुतदानलोलुपद्विरेफमालासितवर्णचामरैः । स पिप्रिये प्राभृतमत्तदन्तिभिः प्रिया न केषां भुवि भूरिदानिनः । करान्गृहीत्वा परचक्रभूभृताममात्यमुख्यान् समुपागतान् स्वयम् ।
अनामयप्रश्नपुरःसरं विभुः स संबभाषे प्रभवो हि वत्सलाः ॥ [ वर्ध. २।४-६ ] विबुध.-सो कणय-कूड-कोहिहि वराई कारावइ मणहर जिणहराई ।
पोम-मणि करोहहिं आरुणाई पल्लवियंवर पविउल-वणाई। अवर वि णर हंति महंत संत धम्माणुरत्त चितिय परत्त । अणवरय चलिय सुवि चामरेहि तुंगहि विभिय-खयरामरेहि । दाणंबु गंध-रय-छप्पएहिँ पाहुड-मय-मत्त-महागएहि । भाउ व संतोसु ण करहि कासु वहु दाणवंत अवर वि जणासु । उब्भिवि करु लेविणि असि फरु संभासइ चच्चिय छलु ।
सो सुस्सरु कुसल-पुरस्सरु सामिउ होइ सवच्छलु ॥ [ वड्ढ. १।१२।७-१४ ] असग-चतुःपयोराशिपयोधरश्रियं नियम्य रक्षायतरश्मिनाघनम् ।।
उपस्नुतां सन्नयवत्सलालनैर्दुदोह गां रत्नपयांसि गोपकः ॥ [ वर्ध. २१७ ] विबुध.-रक्खा रज्जुए णिम्मिविभरेण निरुवम णएण लालिवि करेण ।
चउ-जलहि-पओहर रयणखीरु गो दुहिवि लेइ सो गोउ धीरु ॥ [वड्ढ. १।१३।१-२ ] ४. वि. सं. ९५५ से १६०५ के मध्य लिखित कुछ प्रमुख महावीर-चरितोंके घटनाक्रमोंकी
भिन्नाभिन्नता तथा उनका वैशिष्ट्य दि. परम्पराके पूर्वोक्त कुछ प्रमुख महावीर-चरितोंका विविध पक्षीय तुलनात्मक अध्ययन करनेसे यह स्पष्ट विदित होता है कि उन कवियोंने महावीरके जीवनको अपने-अपने दृष्टिकोणोंसे प्रस्तुत किया है। महाकवि असगको छोड़कर बाकीके कवियोंने भवावलियोंकी कुल संख्या ३३ मानी है जबकि असगने ३१ । उनकी कृतिमें २२वें एवं २३वें भवोंके उल्लेख नहीं हैं। श्वेताम्बर-परम्पराके प्रमुख आगम ग्रन्थ-कल्पसूत्रमें महावीरके २७ पर्व-भव माने गये हैं जिनमें-से दि. मान्यताके ६, २३, २४, २५, २६ एवं २७वें भव उसमें नहीं मिलते । साथ ही १, ५, ६, ७, ९, १०, ११, १२, १६, १७, २२ एवं २३वें भव में उनके क्रमनिर्धारण अथवा नाम-साम्योंमें हीनाधिक अन्तर है।'
अन्य घटना-क्रमोंके वर्णनमें महाकवि असग. रइध और पदम अपेक्षाकृत अधिक मौलिक एवं क्रान्तिकारी कवि माने जा सकते हैं। प्रथम तो असगने भवावलियोंमें कुछ कमी तथा आचार्य गुणभद्र द्वारा लिखित भव-क्रममें कुछ परिवर्तन किया है। दूसरे, उन्होंने तीर्थंकर-माताके प्रसूति-गृहमें सौधर्म-इन्द्र द्वारा मायामयी बालक रखकर तीर्थंकर-शिशुको उठाकर बाहर ले आने तथा अभिषेकके बाद उसे पुनः वापस रख देनेकी चर्चा की है। तीसरे, उन्होंने जन्माभिषेकके समय सुमेरु-पर्वतको कम्पित बतलाया है । चौथे, त्रिपृष्ठ-नारायण द्वारा सिंह-वधकी घटनाका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। ये वर्णन देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ अंशोंमें उनपर श्वेताम्बर-परम्पराका प्रभाव है ।
१. आत्मानन्द जैन महासभा, पंजाब [अम्बाला शहर, १६४८] से प्रकाशित। २. भवावलियोंके पूर्ण-परिचय एवं सन्दभोंके लिए इसी ग्रन्थ की परिशिष्ट सं. २ (ख) देखिए। ३. तुलनात्मक विस्तृत जानकारी एवं सन्दर्भोके लिए इसी ग्रन्थकी परिशिष्ट सं. २(क) देखिए ।
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