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________________ प्रस्तावना स्थित होते ही मधुमास [चैत्र] की शुक्ल त्रयोदशीके दिन एक तेजस्वी बालकको जन्म दिया (९)। देवेन्द्रोंने तरह-तरहके आयोजन किये और ऐरावत हाथीपर विराजमान कर बड़े गाजे-बाजेके साथ अभिषेक-हेतु सुमेरुपर्वतपर ले गये। वहाँ पाण्डक-शिलापर विराजमान कर १००८ स्वर्ण-कलशोंमें भरे क्षीर-समद्रके जलसे उनका अभिषेक किया। उसके तत्काल बाद ही उस शिशुका नाम 'वीर' घोषित किया। दसवें दिन राजा सिद्धार्थने कुलश्रीकी वृद्धि देखकर उसका नाम वर्धमान रखा तथा आगे चलकर विविध घटनाओंके कारण वे सन्मति एवं महावीरके नामसे भी प्रसिद्ध हुए (१०-१६) । ___महावीर वर्धमान क्रमशः वृद्धिंगत होकर जब युवावस्थाको प्राप्त हुए, तभी ३० वर्षकी आयुमें उन्हें संसारसे वैराग्य हो गया । जब लौकान्तिक देवोंको अवधिज्ञानसे यह विदित हुआ, तब वे कुण्डपुर आये और चन्द्रप्रभा नामकी एक शिविका तैयार की। महावीर उसपर सवार हुए तथा कुण्डपुरसे निकलकर (१७-१९) नागखण्डवनमें गये। वहाँ षष्ठोपवास-विधि पूर्वक केशलुंच कर उन्होंने जिन-दीक्षा ग्रहण कर ली। कुछ समय बाद वर्धमानको ऋद्धियों सहित मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। अगले दिन मध्याह्नकालमें जब सूर्य-किरणे दशों दिशाओंमें फैल रही थीं, तभी दयासे अलंकृत चित्तवाले वे सन्मति जिनेन्द्र पारणा के निमित्त कुलपुरमें प्रविष्ट हए और वहां के राजा कूलचन्द्र के यहाँ पारणा ग्रहण की। उसके बाद भ्रमण करते-करते वे एक महाभीषण अतिमुक्तक नामक श्मशान-भूमिमें रात्रिके समय प्रतिमायोगसे स्थित हो गये। उसी समय 'भव' नामक एक बलवान् रुद्रने उनपर घोर उपसर्ग किया, किन्तु वह भगवान्को विचलित न कर सका । अतः उसने वर्धमानका 'अतिवीर' यह नाम घोषित किया। षष्ठोपवास पूर्वक एकाग्र मनसे वैशाख शुक्ल दशमीके दिन जब सूर्य अस्ताचलकी ओर जा रहा था, तभी महावीरको ऋजुकूला नदीके तोरपर केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई। केवलज्ञान प्राप्त होते ही उन्हें समस्त लोकालोक हस्तामलकवत् झलकने लगा। इन्द्रका आसन जब कम्पायमान हुआ तब अवधिज्ञानके बलसे उसे महावीर द्वारा केवलज्ञान-प्राप्तिका वृत्त अवगत हुआ। उसने शीघ्र ही यक्षको समवसरणकी रचनाका आदेश दिया। उसने भी १२ योजन प्रमाण सुन्दर समवसरणकी रचना की। ( कविने समवसरणकी रचनाका वर्णन पूर्वाचार्यों द्वारा प्राप्त परम्पराके अनुसार ही किया है ) ( २०-२३ )। [नवीं सन्धि ] ___ समवसरण प्रारम्भ हुआ। सभी प्राणी अपने-अपने कक्षोंमें बैठ गये, फिर भी भगवान्की दिव्यध्वनि नहीं खिरी। यह बड़ी चिन्ताका विषय बन गया। इन्द्रने उसी समय अपने अवधिज्ञानसे उसका कारण जाना और अपनी विक्रिया-ऋद्धिसे वह एक दैवज्ञ-ब्राह्मणका वेश बनाकर तुरन्त ही गौतम नामक एक ब्राह्मणके पास पहुँचा (१)। पहले तो गौतमने बड़े अहंकारके साथ उस दैवज्ञ-ब्राह्मणके साथ वार्तालाप किया, किन्तु दैवज्ञब्राह्मणने जब गौतमसे एक प्रश्न पूछा और वह उसका उत्तर न दे सका, तब वह दैवज्ञ-ब्राह्मणके साथ उस प्रश्नके स्पष्टीकरणके हेतु अपने ५०० शिष्योंके साथ महावीरके समवसरणमें पहुँचा। वहाँ सर्वप्रथम मानस्तम्भके दर्शन करते ही उसका और उसके शिष्योंका मान खण्डित हो गया। गौतम विप्र महावीरके दिव्यदर्शनसे इतना प्रभावित हुआ कि उसने तत्काल ही जिनदीक्षा ले ली और उत्कृष्ट ज्ञानका धारी बनकर भगवान् महावीरकी दिव्यवाणीको झेलने लगा (२)।। ___ उसके बाद इन्द्रने जिनेन्द्रसे सप्त-तत्त्वों सम्बन्धी प्रश्न पूछा। उसे सुनकर जिनेश्वरने अर्धमागधी भाषामें उत्तर देना प्रारम्भ किया। भगवान् महावीरने सर्वप्रथम जीव तत्त्व-विविध जीवोंके निवासस्थान, उनकी विविध योनियों एवं आय आदिके वर्णन किये (३)। तत्पश्चात उन्होंने जिस प्रकार अपना प्रवचन किया उसका वर्गीकरण निम्न प्रकार है जीव, जीवोंकी योनियाँ एवं उनका कुलक्रम (४), जीवोंकी पर्याप्तियाँ एवं आयुस्थिति (२), जीवोंके शरीर-भेद (६), स्थावर-जीवोंका वर्णन (७), विकलत्रय एवं पंचेन्द्रिय-तियंचोंका वर्णन (८), प्राणियोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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