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________________ २८६ बड्डमाणचरिउ अन्त्य प्रशस्ति णट्टल आराहिउ कइयण साहिउ तव सिरिहर मुणि वंदिउ ॥१७॥ १२।१७।१ 10 15 १२।१८ संसारत्तारंणु पासणाहु धरणिंद सुरिंद नरिंद णाहु । णट्टलहो देउ सुंदर समाहि पुव्वुत्त-कम्म नित्थरणु वोहि । मज्झु वि पुणु पउ जो देउ णण्णु गुण-रयण सरंतहो पास सण्णु । राहव साहुहें सम्मत्त-लाहु संभवउ सामिय संसार-डाहु । सोढल णामहो सयलवि धरित्ति धवलंति भमउ अणवरउ कित्ति । तिण्णिव भाइय सम्मत्त-जुत्त जिण भणिय धम्म विहिकरण धुत्त । महि मेरु जलहि ससि-सूरु जाम सहुँ तणुरुहेहिं गंदंतु ताम । चउविह वित्थरउ जिणिंद संघु पर-समय-खुद्द वाइहिं दुलंघु । वित्थरउ सुयण जसू भअणि पिल्लि तुट्टउ तडत्ति संसार-वेल्लि । विक्कम णरिंद सुपसिद्ध कालि दिल्ली पट्टणि धण कण विसालि । स-णवासी एयारह-सएहिं परिवाडिए परिसह परिगएहिं । कसणट्ठमीहिँ आगहण मासि रविवारि समाणिउँ सिसिर भासि । सिरिपासणाह-णिम्मलु-चरित्तु सयलामल-गुण-रयणोह-दित्तु । पणवीस-सयई गंथहो पमाणु जाणिजहिं पणवीसहिँ समाणु । पत्ता-जा चंद-दिवायर-महिहर-सायर ता वुहयणहिँ पढिज्जउ । भवियहिं भाविजउ गुणिहिँ थुणिज्जउ वर लेहयहिँ लिहिजउ ॥१८॥ इय सिरिपासचरित्त रइयं वुह सिरिहरेण गुणभरियं अणुमण्णिय मणुज्जं णट्टल णामेण भवेण ॥छ।। पुव्व-भवंतर कहणो पासजिणिंदस्स चारु णिव्वाणो। जिण-पियर-दिक्ख गहणो बारहमो संधि परिसम्मत्तो छ। संधि ।।१२।छ।। आसीदत्र पुरा प्रसन्न-वदनो विख्यात-दत्त-श्रुतिः, शुश्रूषादिगुणैरलंकृतमना देवे गुरौ भाक्तिकः । सर्वज्ञ-क्रम-कंज-युग्म-निरतो न्यायान्वितो नित्यशो, जेजाख्योऽखिलचन्द्ररोचिरमलस्फूर्जद्यशो भूषितः ।।१।। यस्यांगजोऽजनि सुधीरिह राघवाख्यो, ज्यायानमन्दमति रुज्झित-सर्व-दोषः। अग्रोतकान्वय नभोङ्गण-पावणेन्दुः, श्रीमाननेक-गुण-रञ्जित-चारु-चेताः ॥२॥ ततोऽभवत्सोढलनामधेयः सुतो द्वितीयो द्विषतामजेयः । धर्मार्थकामत्रितये विदग्धो जिनाधिप-प्रोक्त-वृषेण मुग्धः ॥३॥ 20 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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