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________________ १०.२६. १६] हिन्दी अनुवाद २५७ प्रकार समस्त पुद्गलोका आहार कर वे निरर्गल परिणमन किया करते हैं। हिंसाकी अशुभतासे उनके शरीरों में पीड़ा तो होती है, किन्तु वे मरते नहीं। अपने मनसे जहाँ-जहाँ स्पर्श करते हैं वे वहीं वेदनापूर्वक धंस जाते हैं तथा वहां-वहाँ ( उनके लिए ) तीक्ष्ण शयन ( काँटेदार पलंग ) बन जाते हैं, वे ऐसे प्रतीत होते हैं मानो दुर्जनोंके दुर्वचन ही हों। उन नरकोंके विषयमें जो कुछ कहा गया है, उसे परम नीतिज्ञ केवलीने देखा है। वहाँ १५ सब कुछ विरस ही विरस है, भला लगने लायक कुछ भी नहीं, सब कुछ अशुभतर है। त्यक्तमति उसके द्वारा जो-जो कुछ नासिकासे सूंघा जाता है, वही घातक हो जाता है। उन नरको में सब लूले-लँगड़े अंगवाले ही रहते हैं, कोई भी अंग चंगा नहीं रहता। जहाँ-जहाँ कानों द्वारा स्थिरतापूर्वक जो कुछ सुना जाता है, वह-वह प्रकट रूपसे दुख देनेवाला एवं कुटिल दुवंचन ही मुखसे निकलता है। जो-जो मनमें विचारते हैं तथा एकाग्र मनसे बार-बार सोचते हैं वह-वह मदनसे २० तप्त करनेवाला, वेदनाको उत्पन्न करनेवाला तथा शरीरका दलन करनेवाला होता है। घत्ता-बुढ़ापेकी वेदना, अक्षिनेत्रोंकी वेदना, कुक्षिकी वेदना एवं सिरकी वेदना तथा अनिवारित ऊर्ध्व श्वाँस आदि सभी व्याधियाँ नारकियोंके शरीरमें उत्पन्न होती रहती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं ॥२१॥ नरकोंके घोर दुखोंका वर्णन जहाँ अणुमात्र भी किसी प्रकारके सुखके अनुभव करनेका अवसर नहीं मिलता, जहाँ विक्रोश-आक्रोश ही बना रहता है, वहाँकी तीक्ष्ण अधोगतिको कहाँ तक कहें, जहाँ नारकियोंको निरन्तर दुस्सह दुख ही प्राप्त होते रहते हैं। 'शत्रुओंके प्रतापका हरण करनेवाला मैं ( पूर्व भवमें ) कृष्ण था, मैंने ही पूर्वकालमें प्रतिकृष्णका वध किया था।' इस प्रकार कहते हुए वे सब मानसिक दुखसे सदा परितप्त रहते हैं । . वे अत्यन्त क्रोधी नारकियोंके साथ कृतान्तके समान भिड़ जाते हैं। रणांगणमें प्रमत्त मनपूर्वक क्रीड़ाएँ करते हुए वे दानवों अथवा देवोंके द्वारा भी अलग-अलग नहीं किये जा सकते। 'अरे जब तू पूर्वभवमें कुंजर था, तब पंचमुख-सिंह द्वारा विदारित किया जाकर दुख-सागरमें धकेल दिया गया था। अरे इस दुष्टने पृथ्वी एवं महिलाके निमित्त तीखी तलवार तेरे सिर में मारकर तेरा वध कर दिया था। हे विषधर, तू सुधासे क्षीण उदरवाले गरुड़से बिलोंमें प्रवेश १० करते हुए खा डाला गया था। अथवा आज्ञाके वशीभूत होकर महिषके विशाल सींगों द्वारा तू रौंदा गया था। अतः 'इसे मारो' 'इसे मारो' इस प्रकार स्मरण दिला-दिला करके वहाँ वे परस्पर में लड़ाया करते हैं। जिस प्रकार अग्नि प्रज्वलित होती है उसी प्रकार घावो से आहत वे नारकी प्राणी भी क्रोधसे प्रज्वलित होते रहते हैं।' इस प्रकार नारकी प्राणी एक दूसरेसे कहते रहते हैं और महादुखरूपी अग्निकी ज्वालामें पड़े रहते हैं। गदा, असि, खुरपा, छुरी, मूसल, रथांग ( चक्र), सब्बल, शिला, हल आदि शस्त्रोंसे उन बैरियोंको विदारते रहते हैं, कोई उन्हें रोकता नहीं । वहाँ तो उनका शरीर स्वयं हो महाआयुध बन जाता है। पत्ता-वहाँ एकको दूसरेके बाण द्वारा घायल कराया जाता है, एक दूसरेको मारते रहते हैं। एक दूसरेको विदीर्ण करते रहते हैं और परस्परमें एक दूसरेको घातते रहते हैं ।।२१९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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