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________________ १०. २२. १३] हिन्दी अनुवाद २५१ परिमित आयुवाले जो मनुष्य परस्परमें विकारी (लड़नेवाले) तथा क्रोधाग्निकी ज्वालासे १० मारे जाते हैं वे दुखोंसे परिपूर्ण प्रथम नरकमें जाते हैं। (इसी प्रकार) असंज्ञी तिर्यंच भी मरकर प्रथम नरकमें जाते हैं। सरीसृप आदि प्राणी मरकर शर्कराप्रभा नामकी दूसरी नरक भूमि तक जाते हैं। हे वासव, और सुनो-पक्षीगण तीसरे रौरव नामक नरक पर्यन्त जाते हैं। कृष्णकाय, पृथिवीपर भीषण एवं कर्कश आवाजवाले महोरग-सर्प चौथे नरक तक जाते हैं। प्रचण्ड पंचानन-सिंह पाँचवीं नरक भूमि तक जाते हैं। परनरको माननेवाली महिलाएँ छठी नरकभूमि तक १५ जाती हैं। नर एवं तिमि (मत्स्य) मरकर सातवीं नरक भूमि तक जन्म लेते हैं। वहाँपर वे (पूर्वजन्मके) बैरके वशीभूत होकर परस्परमें भिड़ जाते हैं, भागते नहीं। सातवें (माधवी) नरकसे निकलकर वह प्राणी मनुष्य नहीं हो सकता। दुखो में तत्पर तियंच शरीर ही पाता है। छठे (मघवी) नरकसे निकलकर कोई-कोई नारकी मनुष्य शरीर भी पा लेता है। वही मनुष्य पाँचवें अरिष्टा नरकभूमिमें देशवतीपनेको भी प्राप्त होता है। अंजना २० नामक चौथे नरकसे निकलकर वह प्राणी केवलज्ञान प्राप्त कर पंचमगति (मोक्ष) को प्राप्त करता है । शैला, वंशा एवं घम्मा नामके तृतीय, द्वितीय एवं प्रथम अरम्य नरकोंसे निकलकर कोई-कोई जीन तीर्थंकर हो सकते हैं। वे अन्य शलाका पुरुषोंके शरीरको प्राप्त नहीं करते। मनुष्य एवं तियंच मरकर मनिवर पदको प्राप्त करते हैं। पत्ता-मनुष्य सभी विमानों में उत्पन्न होते हैं, ऐसा जिनस्वामीने कहा है। बलदेव २५ आदि सभी ऊर्ध्वगतिगामी होते हैं । जबकि कृष्ण अधोगतिगामी ।।२१४।। २२ तिर्यग्लोक और नरकलोकमें प्राणियोंकी उत्पत्ति-क्षमता तथा भूमियोंका विस्तार दुनिवार प्रतिशत्रु (प्रतिनारायण) का विदारण करनेवाले नारायण नरकसे निकलकर कभी भी हलायुध (-बलभद्र) नहीं होते, अधिक क्या कहें; वे चक्रायुध भी नहीं हो सकते। अग्नि व वायुकायको छोड़कर जिस प्रकार पृथिवी, जल एवं वनस्पति इन तीनों कायोंसे मनुष्य शरीर पाते हैं, उसी प्रकार तिर्यंचोंका भी जानो। कदाचित् देवगतिसे चयकर वह देव बादर पृथिवी, बादर जल, प्रत्येक वनस्पति कायमें जन्म लेते हैं। हे अमृताशन, तामस वृत्तिवाले ज्योतिषीदेव, पुण्य शलाकापुरुष शरीरको प्राप्त नहीं होते । हे सहस्रलोचन-इन्द्र, अभी तुम्हें तिर्यग्लोकके प्राणियोंकी उत्पत्ति-क्षमता कही, अब नरकनिवासके विषयमें सुनो तेजोधाम जिनेन्द्रने चित्रा नामकी प्रथमा पथिवी कही है। (उस पृथिवीके ३ खण्ड हैं-) खरबहुल नामका प्रथम खण्ड है, जो १६ सहस्र योजन (विस्तृत) है जो (कुछ व्यन्तरों तथा १० असुरकुमारोंको छोड़कर) ९ प्रकारके भवनवासी देवोंसे विभूषित है। इसी प्रकार जो दूसरा पंकबहुल भाग कहा गया है, वह ८४ हजार योजन प्रमाण है, जहाँ असुरकुमार जातिके देव, भवनवासी देव तथा राक्षस नामक व्यन्तर देव निवास करते हैं । तीसरा जलबहुल नामका खण्ड कहा गया है, जो ८० हजार योजन प्रमाण है। वहाँ नारकी प्राणी विक्रिया ऋद्धि करके परस्परमें विरोध किया करते हैं और युद्ध करते रहते हैं। इसी प्रकार अन्य ६ पृथिवियोंके भी पाप-बहुल १५ नारकी प्राणी हैं, जिनका विचार जिनवरको छोड़कर अन्य दूसरोंने नहीं किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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