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________________ १०. २१.६] हिन्दी अनुवाद २४९ २० प्राचीन भौगोलिक वर्णन-कर्मभूमिके मनुष्योंकी आयु, शरीरको ऊँचाई तथा अगले जन्ममें नवीन योनि प्राप्त करनेकी क्षमता कर्मभूमियोंके कोई जीव १ दिन, ३ मास, १ मास, ६ मास अथवा १ वर्ष तक जीते हैं। कुछ इससे भी अधिक जीनेकी इच्छावाले भी होते हैं। कोई-कोई कई वर्षों तक जीवित रहते हैं। ऐसा मात्सर्यविहीन जिनवरने कहा है। कोई मनुष्य अचानक ही स्वेद-मल ( पसीनेके मैलसे काँख आदि अंगों ) से उत्पन्न हो जाते हैं। वे बेचारे सम्मूर्छन जन्मवाले होते हैं और ( श्वासके १८वें भागमें ) मर जाते हैं। कोई ५ मनुष्य तुषार-बर्फकी तरह गर्भ में ही गल जाते हैं और कुछ मनुष्य कतिपय दिन जीवित रहकर पड (मर) जाते हैं। मनुष्योंके शरीरकी उत्कृष्ट ऊँचाई ५२५ धनुष ( इतनी ही ऊँचाई बाहुबलिकी थी)। तथा निकृष्ट ऊँचाई १ अरनि प्रमाणकी होती है ( यह छठे कालमें अन्तमें होती है) ऐसा जिनवरने भव्यजनोंके लिए प्रकट किया है । उस कालमें जीव मरकर कुब्जक एवं वामन संस्थानवाले होते हैं। वे परस्परमें रमते हैं, लजाते नहीं। सातवीं पृथ्वीके नारकी जीव मनुष्योंमें उत्पन्न नहीं होते । हाँ, अन्य-अन्य जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हो सकते हैं, ऐसा विचारा गया है। हे सुरेश, जिस प्रकार यह (पूर्वोक्त विषय ) समझा है, उसी प्रकार तेजोकाय एवं वायुकाय प्राणियोंके विषयमें भी जानो कि वे भी मनुष्योंमें जन्म नहीं ले सकते । कोई-कोई तपस्वी कठोर व्रतधारी होते हैं, वे भवनवासी, व्यन्तर एवं ज्योतिषी सुरवरोंमें उत्पन्न होते हैं। परिव्राजक साधु पाँचवें स्वर्ग तक जन्म ले सकते हैं। आजीविक साधु १५ सहस्रार-बारहवें स्वर्ग तक जन्म लेते हैं। ऐसा जिनेन्द्रने कहा है। सम्यक्त्वरूपी आभरणसे विभूषित मनुष्य इन ( पूर्वोक्त ) देवोंमें तथा इनसे भी ऊपरवाले देवोंमें उत्पन्न होते हैं। व्रताश्रित मनुष्य भी इन सब स्वर्गों में जन्म ले सकते हैं। श्रावकके बारह व्रतोंसे प्रभावित सुन्दर मनुष्य सोलहवें अच्युत स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं। व्रतरहित कोई भी मुनि उसके ऊपर नहीं जा सकता; ऐसा जिनेन्द्रने कहा है। द्रव्यलिंगी व्रत सहित मुनि नव-प्रैवेयक पर्यन्त जा सकते हैं। २० भाव सहित शुद्ध चारित्रसे अलंकृत मुनि जिनलिंगके प्रभावसे महाव्रत सहित ऊपर जाते हैं। घत्ता-अभव्य निर्ग्रन्थ व्रतधारी मुनि ऊपरके नौवें ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकते हैं, तथा प्रशस्त रत्नत्रयवालोंकी उत्पत्ति ऊपरके सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग तक हो सकती है ।।२१३॥ २१ किस कोटिका जीव मरकर कहां जन्म लेता है ? नारकी जीव मरकर नारकी नहीं होता। इसी प्रकार मनोहारी देव भी मरकर देव नहीं होता। जिस प्रकार नारकी जीव मरकर देव नहीं होते उसी प्रकार स्वर्ग-विमानोंमें रहनेवाले देव भी मरकर नारकी नहीं होते। मनुष्य एवं तिथंच चारों ही गतियों में गमन करते हुए भ्रमते रहते हैं। वे तीनों लोको के स्वामी भी हो सकते हैं। तिर्यंचके शरीर-प्रमाण आयुष्यको पाकर तिर्यंच प्राणी मरकर तिर्यंच होते हैं। इसी प्रकार ५ मनुष्य शरीरसे मनुष्य जन्म पाना भी (सिद्धान्त-) विरुद्ध नहीं है । ___ मनुष्य एवं तिर्यंच (भोगभूमिमें) पल्योपम आयु प्रमाण जीवित रहकर उपशम-भावो से आर्य स्वभाव होकर फिर (अन्य) तीनो गतियों में नहीं जाते, वे निश्चय ही स्वर्गमें देव-शरीर प्राप्त करते हैं ऐसा जिनेन्द्रने कहा है। ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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