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________________ १३ प्रस्तावना यही विदित होता है कि नट्टल साहू अपने व्यापारिक प्रतिष्ठानों अथवा अनंगपाल के सन्देशवाहक राजदूतके रूपमें उक्त देशोंमें प्रसिद्ध रहा होगा। नट्टलका इतने राजाओं द्वारा जाना जाना स्वयं एक बड़ी भारी प्रतिष्ठाका विषय था । कवि श्रीधर नट्टलसे इतना प्रभावित था कि उसने उसे जलधिके समान गम्भीर, सुमेरुके समान धीर, निरभ्र आकाशके समान विशाल, नवमेघ के समान गम्भीर गर्जना करनेवाला, चिन्तकोंमें चिन्तामणि रत्न, सूर्यके समान तेजस्वी, मानिनियोंके मनको हरण करनेवाले कामदेव के समान, भव्यजनोंके लिए प्रिय तथा गाण्डीवके समान गुण गणोंसे सुशोभित कहा है। कविने दिल्ली के जिस राजा अनंगपालकी चर्चा की है, उसे पं. परमानन्दजी शास्त्रीने तोमरवंशी राजा अनंगपाल तृतीय माना है । कविने उसके पराक्रमकी विस्तृत चर्चा अपनी प्रशस्ति में की है । 'पासणाहचरिङ' भाषा, भाव एवं शैलीको दृष्टिसे बड़ी प्रोड़ रचना है। कविने उसकी विषय वस्तुका वर्गीकरण इस प्रकार किया है सन्धि १. वैजयन्त विमानसे कनकप्रभ देवका चय कर वामादेवीके गर्भमें आना । सन्धि २. राजा हयसेनके यहाँ पार्श्वनाथका जन्म एवं बाल लीलाएँ । सन्धि ३. ह्यसेनके दरबार में यवन-नरेन्द्र के राजदूतका आगमन एवं उसके द्वारा ह्यसेनके सम्मुस यवननरेन्द्रकी प्रशंसा । सन्धि ४. राजकुमार पार्श्वका यवननरेन्द्रसे युद्ध तथा रविकीर्ति द्वारा पार्श्व पराक्रमकी प्रशंसा । सन्धि ५. संग्राम में पार्श्वकी विजयसे रविकीर्तिकी प्रसन्नता तथा अपनी पुत्री के साथ विवाह कर लेनेका आग्रह | इसी बीच वनमें जाकर जलते नाग-नागिनीको अन्तिम वेलामें मन्त्र-प्रदान एवं वैराग्य । सन्धि ६. हयसेनका शोक सन्तप्त होना, पार्श्वकी घोर तपस्याका वर्णन । सन्धि ७ पार्श्वकी तपस्या और उनपर उपसर्ग । सन्धि ८. केवलज्ञान-प्राप्ति एवं समवसरण सन्धि ९. समवसरण एवं धर्मोपदेश । सन्धि १०. धर्मोपदेश एवं रविकीर्ति द्वारा जिनदीक्षा ग्रहण | सन्धि ११. धर्मोपदेश | सन्धि १२. पार्श्वके भवान्तर तथा हयसेन द्वारा दीक्षा ग्रहण । प्रशस्ति-वर्णन | कलापक्ष एवं भावपक्ष दोनों ही दृष्टियोंसे 'पासणाहचरिउ' एक उत्कृष्ट कोटिकी रचना है। कविको महाकविकी उच्चश्रेणी में स्थान प्राप्त करानेके लिए 'पासणाहचरित' जैसी अकेली रचना ही पर्याप्त है। यमुना नदी - वर्णन, संग्राम १० ११ प्रभात आदिके आलंकारिक , १५ , , 'पासणाहचरिउ' के योगिनीपुर-नगर ( ढिल्ली या दिल्ली ) का वर्णन, वर्णन', जिन-भवन- वर्णन, तथा प्रसंग प्राप्त देश, नगर, वन-उपवनं, सन्ध्या' वर्णन द्रष्टव्य हैं। इनके अतिरिक्त षद्-द्रव्य, सप्त-तत्त्व नौ-पदार्थ ४, तप ध्यान आदि सिद्धान्तोंका वर्णन, भाग्य एवं पुरुषार्थका समन्वय आदिपर भी सुन्दर प्रकाश डाला गया है। व्यावहारिक ज्ञानोंमें भी कविने अपनी बहुज्ञताका अच्छा प्रमाण दिया है। देखिए उसने अपने समयके भारतीय राज्योंका कितना अच्छा परिचय दिया है १. पासणाहचरिउ - अन्त्य प्रशस्ति-दे, परिशिष्ट सं. १ (क) २. दे. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, द्वि भा. - भूमिका- पु. ८४ । ३. पासणाह, ११२/१४ - १६; १।३।१-१७ । ४. पासणा. ११२२६-१३ । ५. वही ४१२ २०११ ७१० [ दे, परिशिष्ट -१ ( क )] । ६. वही, ११११।११-१२ । י Jain Education International ७. वही ११ 9. ८. वही. १९१४ । ६. वही ०११-२७१४ १०. वही, ३११७-१८ । ११. वही, ३१५ । १२-१६ . ८-११ सन्धियों For Private & Personal Use Only , ६ www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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