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वड्डमाणचरिउ १. 'वड्ढमाणचरिउ' एवं 'पासणाहचरिउ' का कर्ता विबुध श्रीधर जातिका अग्रवाल जैन था, तथा वह हरयाणा देशका निवासी था।
२. वह अपनी प्रथम रचना-'चन्द्रप्रभचरित' की रचना करनेके बाद ही यमुना नदी पार करके 'ढिल्लो' आया था तथा उसने अपनी उक्त रचना सर्वप्रथम अल्हण साहको ढिल्लीमें ही सुनायी थी।
३. आधुनिक 'दिल्ली का नाम कवि-कालमें 'ढिल्ली' था । ४. 'ढिल्ली' का तत्कालीन शासक अनंगपाल था।
५. जिनवाणी-भक्त अल्हण साह राजा अनंगपालका एक दरबारी व्यक्ति था। राज-दरबारमें कवि श्रीधरको उसीने सर्वप्रथम नट्टल साहूका परिचय दिया तथा उसके अनुरोधसे वह नट्टल साहूसे भेंट करने गया ।
६. नट्टल साहू राजा अनंगपालका एक सम्मानित नगरसेठ तथा सुप्रसिद्ध वणिक् अथवा सार्थवाह था, राजमन्त्री नहीं।
७. अल्हण साह नट्रल साहका प्रशंसक था, वह उसका कोई पारिवारिक व्यक्ति नहीं था।
८. नट्टल साहूके पिताका नाम जेजा साहू तथा माताका नाम मेमडिय था। जेजा साहू के तीन पुत्र थे-राघव, सोढल एवं नट्टल (दे. पास, ११५। १०-१३ तथा अन्त्य प्रशस्ति)।
९. नट्टल साहने ढिल्ली में एक विशाल आदिनाथ-मन्दिरका निर्माण करवाया था तथा श्रीधरकी प्रेरणासे उसने उसमें अपने पिताके नामसे चन्द्रप्रभ-जिनकी एक मूर्ति भी स्थापित की थी।
१०. जिन-भवनों पर 'पंचरंगा झण्डा फहराया जाता था।
कुछ विद्वानोंने नट्टल साहूके पिताका नाम अल्हण साहू माना है, जो सर्वथा भ्रमात्मक है। इसी प्रकार नट्टलको राजा अनंगपालका मन्त्री भी मान लिया है। किन्तु पासणाहचरिउकी प्रशस्तिमें इसका कहीं भी उल्लेख नहीं है। हाँ, एक स्थानपर उसे 'क्षितीश्वरजनादपि लब्धमान:' तथा 'क्षपितारिदुष्टः" अवश्य कहा गया है, किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वह कोई राज्यमन्त्री रहा होगा। यदि वह राज्यमन्त्री होता तो कवि श्रीधरको नट्टलका परिचय देते समय अल्हण साह उस पदका उल्लेख अवश्य ही करते । किन्तु ऐसा कोई उल्लेख उक्त प्रशस्तिमें उपलब्ध नहीं होता। मूल ग्रन्थका सावधानीपूर्वक अध्ययन किये विना किसी निष्कर्षको निकाल लेने में इसी प्रकारके भ्रमात्मक तथ्य उपस्थित हो जाते हैं, जिनके कारण अनेक कठिनाइयाँ उठ खड़ी होती हैं।
कविका आश्रयदाता नट्टल ढिल्ली-राज्यका सर्वश्रेष्ठ समृद्ध, दानी, मानी एवं धर्मात्मा व्यक्ति था । वह अपने गुणों के कारण ढिल्ली के अतिरिक्त अंग, बंग, कलिंग, गौड़, केरल, कर्णाटक, चोल, द्रविड़, पांचाल, सिन्ध, खस, मालवा, लाट, जट्ट, भोट, नेपाल (णेवाल ), टक्क, कोंकण, महाराष्ट्र, भादानक, हरियाणा, मगध, गुर्जर, सौराष्ट्र आदि देशोंमें भी सुप्रसिद्ध तथा वहाँके राजाओं द्वारा ज्ञात था । इस प्रशस्ति-वाक्यसे
१. पासणाह. १४१ तथा पाँचवीं सन्धिकी पुष्पिका-यथा-- ......जैनं चैत्यमकारि सुन्दरतरं जैनी प्रतिष्ठा तथा ।
इसके अवशेष आज भी दिल्लीकी कुतुबमीनार तथा उसके आस-पास देखे जा सकते हैं। कुछ विद्वान उसे पार्श्वनाथमन्दिरके अवशेष मानते हैं किन्तु पासणाहचरिउके अनुसार वह आदिनाथका मन्दिर है। २. पासणाह.-११-इस उपलेखसे प्रतीत होता है कि ११-१२वीं सदी में जैन-सम्प्रदायमें पंचरंगे झण्डे के फहराये जाने की प्रथा
थी। भ. महावीरके २५०० वें निर्वाण समारोह (१९७४-१६७५ ई.) में भी पंचरंगा झण्डा स्वीकार किया गया है जो सभी
जैन-सम्प्रदायकी एकताको प्रतीक है। ३-४. दे. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, द्वि.भा.(दिवली, १९६३) भ्रमिका-प. ८४ तथा तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य
परम्परा ४।१३८ । ५-६. पासणाहचरिउ-अन्त्य प्रशस्ति [दे.-परिशिष्ट १ (क)] ७. वही। ८. वही।
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