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________________ ९.१०.२०] हिन्दी अनुवाद २०१ माता प्रियकारिणीको गर्भकालमें शारीरिक स्थितिका वर्णन । चैत्र शुक्ल त्रयोदशीको बालकका जन्म उस माता-प्रियकारिणीके गाल पीड़े गये, ऐसा प्रतीत होता था मानो वे अनुक्रमसे गर्भस्थ बालकके यश (से ही वैसे हो गये ) हों। चिरकालसे उस माताका उदर त्रिवलि पड़नेसे उस प्रकार सुशोभित नहीं होता था, जिस प्रकार उस ( उदर ) के अहर्निश बढ़ते रहनेसे वह (त्रिवलियुक्त होकर ) शोभने लगी। भारके कारण उसकी गति अति मन्थर हो गयी, ऐसा प्रती होता था मानो गर्भस्थ बालकके गुण-भारसे ही उसकी वह गति मन्द हो गयी हो। वह निरन्तर ५ जिस प्रकार उच्छ्वास लेती थी, उसी प्रकार वह सहसा निश्वास भी छोड़ती थी। जंभाई सहित आलस्य उसे ( उसकी समीपताको) छोड़ता न था मानो वह उसका दास ही हो । तृष्णा विधानको वह धारण करती थी, ऐसा प्रतीत होता था, मानो वह गर्भस्थ पुत्रके मनको ही हर रही हो। मनमें स्थित दोहलेसे वह पीड़ित न थी क्योंकि वह सुन्दर सोहलोंसे सम्पादित थी। उस माता प्रियकारिणीने ग्रहोंके उच्चस्थल में स्थित होते ही मधुमास चैत्रकी शुक्ल १० त्रयोदशीके दिन कैरव-कलियोंको विकसित करनेवाला तेजस्वी चन्द्रमा जब उत्तरा-फाल्गुनी . नक्षत्रमें स्थित था, तभी ( उस जिनेन्द्र ) पुत्रको जन्म दिया। जिस प्रकार गगन-तलके साथ ही समस्त दिशाएँ प्रसन्न-निर्मल हो गयीं, उसी प्रकार प्राणियोंके हृदय भी आह्लादित हो उठे। पत्ता-रति एवं कामदेवके सम्मिलनके समान भ्रमरोंसे सुशोभित पुष्पोंकी वृष्टि प्रारम्भ हो गयी, दुन्दुभि बाजे गडराने लगे, पटह बाजे हड़हड़ाने लगे ऐसा प्रतीत होता था, मानो १५ दिशाओंमें पर्वत ही विघटित होने लगे हों ॥१७९।। सहस्रलोचन-इन्द्र ऐरावत हाथीपर सवार होकर सदल-बल कुण्डपुरकी ओर चला भव्यरूपी कमलोंके लिए दिनकरके समान तथा तप्त कांचनकी आभावाले सुप्रसिद्ध तीर्थनाथ जिनेशके जन्म लेते ही अपने तेजसे सूर्यको भी जीत लेनेवाले सुरेश्वरोंके तत्काल ही अन्धकारका नाश करनेवाले सिंहासन काँप उठे और देवोंके चित्तको विदित कर देनेवाले घण्टे तीव्रताके साथ बज उठे। __ तभी निर्मल सहस्रलोचन इन्द्रने अपने अवधिज्ञानरूपी नेत्रसे वीतरागदेवका हृदयापहारी जन्म जानकर, सिंहासन छोड़कर भलीभाँति माथा झुकाकर, ज्ञान-दीप्तिसे भास्वर उन जिनेश्वरकी भक्ति की तथा दान-मदजलसे प्रसन्न अलिवृन्दोंसे युक्त सुन्दर लक्षणोंसे अलंकृत, शक्तिशाली, एक लाख योजन प्रमाण, कुन्द-मल्लिकाके समान शुभ्र, आभूषणोंकी किरणोंसे भासमान जलकणोंको छोड़नेवाले, ऊँची सूंड़ कर भागनेवाले समुद्रकी तरह गरजना करनेवाले दिग्गजेन्द्रों द्वारा प्रदत्त दीपिकाओंसे दीप्त दन्तपंक्तिवाले, सागर एवं मेघकी क्रूरभाषा (गर्जना) के समान १० अमरेश्वर-इन्द्रकी आशाको पूरा करनेवाले, अपने गण्डस्थलोंसे व्योम-शिखरको छूनेवाले एवं कानोंकी हवासे धूप ( की सुगन्धि ) को बिखेरनेवाले महाकरीन्द्र ऐरावत हाथीका चिन्तन किया। देवताओंके मनका हरण करनेवाला वह महाकरीन्द्र-ऐरावत हाथी ( तत्काल ही ) स्वामीइन्द्रके सम्मुख आ पहुंचा। __घत्ता-उसे देखकर हरि-इन्द्रने हर्ष प्रकट किया और वह जब उसपर आरूढ़ हुआ तब १५ अन्य देवगण भी डमरू बजाते हुए अपने परिजनों सहित चल पड़े ॥१८०॥ २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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