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________________ हिन्दी अनुवाद ९.५.१३] २०३ घत्ता-धराका साधन करनेवाले उस राजा सिद्धार्थके मनको प्रिय लगनेवाली 'प्रियकारिणी' नामकी प्रिया थी, जो समस्त जनोंके लिए सुखकारी, महिला-जगत्में सुभग-सुन्दर, १५ तथा पृथिवीके लिए मण्डनस्वरूपा थी ॥१७३।। राजा सिद्धार्थको पट्टरानी प्रियकारिणीका सौन्दर्य-वर्णन . स्फुरायमान हार धारण करनेवाली वह रानी प्रियकारिणी सुरेन्द्रोंके चित्तका हरण करनेवाली, विशुद्ध शील धारण करनेवाली, कामके तापको हरनेवाली, प्रियके अन्तरंगको रमानेवालीहंसिनीके समान लीलाओं-पूर्वक गमन करनेवाली, अपने सौन्दर्यसे अप्सराओंको भी जीत लेनेवाली, मात्सर्य भावसे दूर रहनेवाली, सुन्दर एवं विशाल भौंहोंवाली, अपने अंगरूपी कीतिसे विस्तृत, अपनी वाणीसे कोकिलाको भी जीत लेनेवाली विशाल हृदयवाली मातृस्वरूपा, मानो ५ इला (राजर्षि जनककी माता ) ही हो। कुलरूपी आकाशमें रोहिणी नामक नक्षत्रके समान, चंचल चित्तको रोकनेवाली रणझण-रणझण करती हुई मेखला धारण करनेवाली, अपने प्राणोंसे स्नेह-समन्वित, धराके अवलोकनमें आतुर, नूपुरोंसे सुसज्जित, दन्तकान्तिसे चन्द्रिकाको तिरस्कृत करनेवाली, समस्त जनों द्वारा वन्दित, अपने बन्धु-बान्धवों द्वारा सम्मानिता, कविवृन्दों द्वारा वणिता (प्रशंसिता ), गुणावलिसे विभूषिता, पाप-भावनासे अदूषिता थी। घत्ता-राजा सिद्धार्थ उस रानी प्रियकारिणीका अनुरागपूर्वक मुख-दर्शन करते हुए, सुख-भोग करते हुए ( उसका ) कल्याण चाहते हुए, मधुरालाप-पूर्वक समय व्यतीत करने लगे ॥१७४॥ इन्द्रको आज्ञासे आठ दिक्कुमारियाँ रानी प्रियकारिणीको सेवाके निमित्त आ पहुँचती हैं इसी बीचमें अपने अवधिज्ञानसे यह जानकर उस (पूर्वोक्त प्राणत-स्वर्गके ) इन्द्रकी आयु छह माह ही शेष रह गयी है, सुरपति इन्द्रने लावण्यरूप एवं सौभाग्यसे युक्त मुख-विवरोंसे निकलती हुई दिव्य सुगन्धिवाली तथा विस्तीर्ण कुण्डलोंके अचल निवासवाली आठ दिक्कन्याओंको ( इस प्रकार ) आदेश दिया-"तुम लोग जाकर कमलकी छायाको भी जीत लेनेवाले भावी जिननाथकी माताके चरण-कमलोंकी सेवा करो।" इन्द्रके उस आदेशको सानुराग सुनकर, सुन्दर ५ एवं ललित कायवाली वे दिक्कुमारियां मिल-जुलकर चलीं। (१) पुष्पमूला नामकी सुप्रसिद्ध दिक्कन्याका शीर्ष-शिखर रत्नमय चूला ( चोटी ) से स्फुरायमान था। देवसमूहोंके मन में भी कामवाणोंको प्रकट कर देनेवाली, (२) चूलावइ, (३) नवमालिका एवं (४) नतशिरा थी, ( यात्रिशिरा ), पुष्पोंके समान कान्तिवाली तथा गीर्वाण मार्गकी ओर सहर्ष ले जानेवाली, (५) पुष्पप्रभा, इसी प्रकार अन्य, कान्ति-समूहसे सुशोभित तथा अपने मनमें आनन्द चित्त रहनेवाली, १० (६) कनकचित्रा तथा अन्य सानन्द चित्त रहनेवाली, (७) कनकदेवी और इसी प्रकार नवकमल पुष्प ( लेकर चलने) वाली, (८) वारुणिदेवीको समझो । उन देवियोंने महाभक्तिसे विभोर होकर' तथा माथेपर दोनों हाथ रखे हुए घत्ता-वहाँ आकर अनेक गुणोंवाली उस रानी प्रियकारिणीको नेत्रोंके तारेकी तरह घेर लिया। वह स्वजनोंमें उसी प्रकार सुशोभित थी जिस प्रकार कि आकाशमें रवि शशि तथा तारोंमें १५ चन्द्रकला सुशोभित होती है ॥१७५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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